भारत। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य की गाथा हर भारतीय के हृदय में गूंजती है। प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियां—"बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी"—आज भी देशभक्ति का ज्वलंत प्रतीक हैं। इन पंक्तियों में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का वर्णन है, जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ अद्वितीय साहस दिखाया था।
रानी लक्ष्मीबाई के सैन्य दल में उनके विश्वासपात्र तोपची गुलाम गौस खान का विशेष योगदान था। कड़क बिजली नामक तोप के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजों को किले में घुसने से रोके रखा और दो सप्ताह तक उनकी सेना को जूझने पर मजबूर किया। गुलाम गौस खान की बनाई तोपें आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में देखी जा सकती हैं।
हालांकि, इस महान सेनानी की मूर्ति स्थापित करने को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। एमसीडी और डीडीए ने रानी लक्ष्मीबाई और गौस खान की मूर्ति दिल्ली के शाही ईदगाह के समीप एक पार्क में लगाने का निर्णय लिया। यह पार्क ईदगाह से सटा हुआ है, जहाँ ईद के अवसर पर हजारों लोग नमाज पढ़ने के लिए पहुंचते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग इस मूर्ति को पार्क में लगाने का विरोध कर रहे हैं, जिससे विवाद उत्पन्न हुआ है।
धर्म और समुदाय के नाम पर किए जा रहे इस विरोध से सवाल खड़े होते हैं कि क्या हम अपने वीर नायकों को धर्म के आधार पर बांट रहे हैं? रानी लक्ष्मीबाई और गुलाम गौस खान की वीरता और देशभक्ति किसी धर्म विशेष की नहीं थी, बल्कि वह भारतीय इतिहास का गर्वित हिस्सा हैं। मूर्ति स्थापना के इस विरोध ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम एक राष्ट्र के रूप में अपने इतिहास और नायकों का सही सम्मान कर पा रहे हैं?
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