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औरत हूँ मैं ।

मनोज तोमर दैनिक फ्यूचर लाइन टाईम्स ब्यूरो चीफ गौतमबुद्धनगर ‌
औरत हूँ मैं
हर दिन एक नई लड़ाई लड़ती हूँ
रात के सन्नाटे से डरती हूँ
बचपन से एक ही बात मेरे कानों को सुनाई जाती है
बेटियां पराई होती है
बेटियां पराई होती है
फिर क्यों कहते हो
बधाई हो लक्ष्मी आई है
तभी कोई तपाक से कहता है
खर्चे का घर लाई है
कलम की जगह हाथों में झाड़ू थमा दिया जाता है
औरत हूँ मैं
हर दिन एक नई लड़ाई लड़ती हूँ
कभी घर में अपनों से बचती हूँ
तो कभी बाहर चौराहों पर खड़े
भेड़ियों से
कभी निर्भया बना दी जाती हूँ
कभी लक्ष्मी की तरह तेज़ाब मुँह पर डाल दिया जाता है
इन सब से अगर बच भी जाऊं तो
घरवालों से हर दिन एक ताना सुनने को मिलता है
दूसरे के घर जाना है नाक मत कटाना मेरी
फिर बांध दिया जाता है
उस बंधन में मुझसे बिन पूछे
जिसे मैं जानती तक नहीं
पता नहीं कौन है, कैसा है
और फेंक दिया जाता है बिस्तर पर
रात के सन्नाटों के बीच
मेरी आवाज़ बस दबकर रह जाती है
पति जो है उसे खुश तो करना होगा
चाहे उसका चेहरा मुझे पसंद हो या नहीं
कभी मेरी पसंद नहीं पूछी जाती
आखिर मैं क्या चाहती हूं
क्योंकि औरत हूँ मैं
हर दिन एक नई लड़ाई लड़ती हूँ
By- Avanish chandra 

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