दैनिक फ्यूचर लाइन टाईम्स गौतमबुद्धनगर उत्तर प्रदेश से लेखक आर्य सागर खारी 🖋️
महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200 वी जयंती के उपलक्ष्य में 200 लेखों की लेखमाला के क्रम में आर्य जनो के अवलोकनार्थ लेख संख्या 4,
अनेक कारणों से विरजानंद दंडी जी अलवर नरेश के राजाश्रय को ठुकरा कर आ गए लेकिन उनकी विद्वता तपिस्वता तेज के भक्त केवल अलवर नरेश ही नहीं थे जयपुरपति राजा जय सिंह साथ ही भरतपुर के जाट नरेश बलवंत सिंह भी उनके भक्त थे। अलवर छोड़ने के पश्चात भरतपुर के नरेश के आग्रह पर वह कुछ दिन भरतपुर रहे फिर स्थाई तौर पर मथुरा आ गए और अपनी प्रथम पाठशाला मथुरा में स्थापित की। दंडी जी की पाठशाला के स्थान व उसके स्वामित्व को लेकर दो मत है एक मत यह है कि दंडी जी ने वह स्थान किराए पर लिया था तो दूसरा मत यह कहता है कि वह स्थान किसी गुजरमल नामक जागीरदार के घर का एक हिस्सा थी । दंडी जी की पढ़ाने की नुतन व अनूठी शैली के कारण उनके विद्यार्थी दिन प्रतिदिन बढ़ने लगे। मथुरा से लेकर हरिद्वार काशी तक पंडित वर्ग में उनकी कीर्ति विद्वता की छाप तो पहले ही स्थापित थी। दांडी जी अपने किसी भी विद्यार्थी से कोई शुल्क नहीं लेते थे ना ही कोई गुरु दक्षिणा लेते थे वह निशुल्क विद्या दान देते थे। उनके जीवन निर्वाह के लिए उन्हें मासिक उनके भक्तों द्वारा अन्न जल व अन्य आर्थिक सहयोग मिल जाता था उसी में उनका गुजारा चलता था। मथुरा के धनी मानी नामी सेठों से उन्हें कुछ नहीं मिलता था। उस समय उत्तर भारत के सेठो में सर्वाधिक धनी माने जाने वाला सेठ राधाकृष्ण मथुरा का ही निवासी था । 1845 से लेकर 1851 के बीच उसने डेढ़ करोड़ रुपए खर्च करके मथुरा में सेठ राधाकृष्ण ने दो मंदिर बनवाये थे जिन्हें एक लक्ष्मी नारायण का मंदिर हैं। सेठ राधा कृष्ण के पिता मनीराम तथा उनके मित्र पारख जी जो गुजराती वैश्य था मथुरा में ही जो रहता था ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के सेठ थे वहां उन्होंने ठेकेदारी से अकूत संपत्ति इकट्ठी की थी मनीराम के मित्र पारख जी के पास कोई संतान नहीं थी उन्होंने सेठ राधाकृष्ण को गोद ले लिया था ऐसे में उसे दोहरी संपत्ति विरासत में मिली थी । जैन संप्रदाय से रंगाचार्य के माध्यम से वैष्णव मत में दीक्षित हुये सेठ राधाकृष्ण भी दंडी स्वामी की विद्वता के कायल थे लेकिन वह अपने गुरु के प्रति आसक्त उसका गुरु वैष्णव मत का आचार्य रंगाचार्य था रंगाचार्य के पास भी अकूत संपत्ति थी कहा जाता है उसके पास भरतपुर के जाट राजा जवाहर सिंह का खजाना हाथ लगा था जो उसने 18वीं शताब्दी में दिल्ली मुगलों पर हमला करके हासिल किया था और उस रगंचार्य का गुरु कृष्ण शास्त्री भी मथुरा में ही आकर रहने लगा था। कृष्ण शास्त्री भी व्याकरण का विद्वान था। एक बार कृष्ण शास्त्री के शिष्य व दंडी स्वामी जी के शिष्यों के बीच 'अजाद्युति:' संस्कृत के इस पद को लेकर शास्त्र छिड़ गया दोनों पक्ष के शिष्य अपने-अपने गुरु के पास गए दंडी स्वामी जी ने अपने विद्यार्थियों से कहा इस पद में केवल षष्ठी तत्पुरुष समास है तो वही कृष्ण शास्त्री ने अपने शिष्यों से कहा इस पद में षष्ठी नहीं सप्तमी तत्पुरूष समास है। जब दंडी स्वामी जी को कृष्ण शास्त्री का यह विपरीत मत पता चला तो उन्होंने अपनी शिष्य रंगदत्त और गंगादत्त को कहा कृष्ण शास्त्री से कहो इस विषय में भ्रात है इसमें षष्ठी समास ही है इसमें सप्तमी नहीं हो सकती मैं इस विषय में उनके साथ शास्त्रार्थ करने पर उद्धत हूं। दंडी स्वामी जी की इस चुनौती के विषय में जब सेठ लक्ष्मी नारायण को पता चला तो वह बहुत व्याकुल हुआ क्योंकि कृष्ण शास्त्री उसके गुरु का गुरु था गुरु भक्ति में वह अंधा हो गया था विद्याप्रेमी कुछ मथुरा वासीयों के दबाव के कारण शास्त्रार्थ नियत हुआ ।सेठ ने यह काट निकाली की शास्त्रार्थ में मेरे बड़े गुरु कृष्ण शास्त्री हिस्सा नहीं लेंगे उनके केवल शिष्य हिस्सा लेंगे लेकिन मौके पर ना ही उनके शिष्य आये और कृष्ण शास्त्री का आना तो दूर की कौड़ी था जबकि दंडी स्वामी जी अपने शिष्यों के साथ उपस्थित थे लक्ष्मी नारायण ने छल से यह घोषणा करवा दी की दंडी स्वामी जी शास्त्रार्थ में पराजित हो गए हैं पूरे मथुरा नगर में यह शोर प्रचारित कर दिया और साथ ही पैसे देकर अपने एक विश्वासपात्र को काशी भेज दिया कि वहां जाकर वह पंडितों से कृष्ण शास्त्री के पक्ष में मीमांसा पत्र लिखवा कर ले आए सेठ राधा कृष्ण के उस विश्वास पात्र ने काशी जाकर धन के प्रयोग से काशी के पंडित वर्ग से मनमानी व्यवस्था लिखवा ली इस बात का जब दंडी स्वामी जी को पता चला तो वह बहुत आहत हुए उन्होंने तुरंत काशी की विद्वत मंडली को पत्र लिखा । काशी की पंडित मंडली दांडी जी के पत्र का तिरस्कार करें ऐसा उनमें साहस नहीं था और अंत में मंडली ने खेद प्रकट करते हुए दंडी स्वामी जी के मत को सत्य बताया लेकिन कहा अब बहुत देर हो चुकी है दंडी स्वामी जी ने पुनः पत्र लिखकर उनकी भर्तसना की कहा जाता है दंडी स्वामी जी ने काशी के पंडितों पर कटाक्षपूर्ण 'कंथ काशी विदुष्मती' पदान्तक एक श्लोक अष्टक भी रचा था। उल्लेखनीय होगा दंडी स्वामी के अद्वितीय शिष्य महर्षि दयानंद को वह पूरा कंठस्थ था। मथुरा के सेठ राधा कृष्ण के असाधु अन्यायुक्त व्यवहार से विरजानंद जी बहुत विरक्त और क्रुद्ध हुए थे। टके के लोभ में काशी के पंडित भी बिक गए इस घटनाक्रम ने दांडी जी को उस प्रज्ञा चक्षु बूढ़े सन्यासी को बहुत आहत किया। इस घटनाक्रम के घटित होते ही दांडी जी के मन में पाखंडी स्वार्थी लोभी पंडितों के प्रति द्वेष प्रतिकार का भाव और अधिक प्रबल हो चुका था बचपन में दुखद घटित घटनाएं कालांतर में विद्या के लिए संघर्ष तत्कालीन राजनीतिक राजव्यवस्था में विलासी भोगी राजाओं के व्यवहार के कारण दंडी जी का व्यक्तित्व उग्र क्रोधी हो गया था वह एक योग्य शिष्य की तलाश में थे जो ऋषियों के सनातन वैदिक सिद्धांतों को पुनः स्थापित करें....।
लेख के अगले अंक में समझेंगे उनकी यह अभिलाषा कब और कैसे पूर्ण होती है।
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