जयंती 27 नंबर 1814
बलिदान दिवस 4 जुलाई 1857
मेरठ। सन् 1857 की क्रान्ति का घटनाक्रम हमारे देश की आत्मा को झकझोर देने वाला घटनाक्रम था. भारतीय इतिहास में जितनी चर्चा इस क्रांति की हुई, शायद ही किसी अन्य घटना की हुई होगी. पर इस क्रान्ति के लिए जनभावनाओं को दिशा किसने दी? किसने उन भारतीय बागी सैनिकों की ईस्ट इंडिया कंपनी के जेल से छुडवाकर एक नैसर्गिक नेतृत्व प्रदान किया?
यह श्रेय मेरठ के तत्कालीन कोतवाल और निकटवर्ती गाँव पांचली के निवासी धन सिंह गुर्जर को जाता है. स्वयं ब्रिटिश सरकार की रिपोर्टों में उसे इस क्रांति का अग्रणी नेता माना गया था. पर आज क्या हम उन्हें वह सम्मान दे पाए हैं, जिसके वह पात्र थे? जानिये उनका जीवनचक्र.15 अगस्त आ रहा है, स्वतंत्रता पर्व का समय. अब फिर से उन शहीदों को याद किया जाएगा जिनका आजादी की इस लड़ाई में योगदान रहा था. पर मेरठ के धन सिंह गुर्जर को वह सम्मान न जाने क्यों नहीं दिया गया जिसका वह पात्र था. जबकि इतिहास गवाह है कि मेरठ की क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित करने में अकेले उसका जितना योगदान था, कम ही लोगों का रहा होगा."वीणा", इंदौर ने उनके सम्मान में मेरा लिखा लेख प्रकाशित किया है, पढियेगा----दस मई १८५७ का मेरठ.भीड़ जब कोतवाली के पास इकट्ठा होने लगी तो अपनी सशस्त्र सिपाहियों की घुड़सवार टुकड़ी के साए में घोड़े पर सवार होकर शहर कोतवाल धन सिंह गुर्जर वहाँ पहुंचा. उसने कहा,
“राम-राम भाइयों!”
भीड़ से हुंकारा लगा,
“राम-राम!”
“बोलो, क्या चाहते हो आप लोग?”
तो आवाजें आईं,
“अपने भाइयों के साथ न्याय हो”, “फौजियों को आजाद किया जाए”, “सम्मान की बहाली हो!” और “मारो फिरंगियों को!” बस ये ही नारे गुंजायमान थे.धनसिंह ने संकेत से उत्तेजित भीड़ को धैर्य रखने को कहा, और अपना नारा दिया,“कोई न बचने पाए, मारो फिरंगियों को! जय हनुमान, जय बजरंगबली.”यही तो जन भावना थी. कोतवाल के एक नारे “जय हनुमान” का साथ थाम लिया इस भीड़ ने. इन नारों ने इस बढ़ती अग्नि में ज्वाला का रूप धारण करने का काम किया था. बारम्बार ‘जय हनुमान’ और सिर्फ ‘जय हनुमान के गगनभेदी नारों से इलाका गूँज उठा. धन सिंह गुर्जर ने अब विलम्ब नहीं किया. उसने नेतृत्व सँभाला. जो पुलिस बल उसकी अगुआई में ब्रिटिश हुकूमत को सुरक्षा करने के दायित्व से बंधा था, उसने अपने कोतवाल के एक हुंकारे पर अपना गुलामी का आवरण उतार फेंका था. उनमें से अधिकाँश लोग उसके पीछे-पीछे चल पड़े थे.जब मालूम हुआ कि उन सैनिकों को कोतवाली में नहीं, जेल में रखा गया है तो भीड़ का रुख जिला जेल की तरफ हो लिया. नेताविहीन भीड़ को शहर कोतवाल के रूप में एक नेता मिल गया था.अपमानित सैनिकों के साथियों ने अपने इन बहादुर पिचासी सैनिकों को जेल से मुक्त करा लिया गया था. जो अन्य अफसर बीच में आये, उनकी जम कर पिटाई हुई. इस उन्मादी भीड़ ने अंग्रेज जेल अधीक्षक की पीट-पीट कर हत्या कर दी, क्योंकि उसने लोगों की धार्मिक भावनाओं पर कोई टिप्पणी कर दी थी.पहले शाम को, फिर देर रात जेल परिसर में जेल से कुल 839 कैदियों को आजाद करा लिया गया था. उन 85 सैनिकों की हथकड़ी व बेडिय़ां कटवाकर मुक्त कराया गया, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के अपमानजनक आदेश का शिकार बन जेल भेज दिए गये थे. सब मुक्त होकर स्वतंत्रता सेनानियों के इस दल के साथ मिल गए. वहाँ से यह भीड़ मेरठ शहर और सिविल लाइन में घुस गई और अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों को आग लगाना और उन्हें मारना शुरू कर दिया. बंगले धू-धू कर जलने लगे. कई ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला गया. जो बच गये उन्हें अपने मित्रों के यहाँ जाकर छिपना पड़ा. देखते ही देखते मेरठ छावनी और शहर में अंग्रेजी राज का आतंक व सिक्का समाप्तप्राय: हुआ.शहर कोतवाल नगर के मिजाज और चप्पे-चप्पे से वाकिफ था. लंबे-तडंगे व्यक्तित्व और बड़ी ऐंठी हुई मूँछों से अलग ही दिखने वाला धन सिंह मेरठ शहर के बिल्कुल पास के पाँचली खुर्द गाँव का रहने वाला था. वह एक सम्पन्न गुर्जर किसान परिवार से था. धुन का पक्का था, कानून और व्यवस्था बनाये रखने, अपराधियों से सख्त रहने में कोई समझौता नहीं करता था, परन्तु थोड़ा अलग किस्म का था. मनमौजी. लगता था इन गोरों की लगातार बदतमीजियों और ललकार के कारण उसकी बात भी पहले ही बिगड़ चली थी. ब्रिटिश सैन्य और प्रशासनिक अधिकारी किसी को बेइज्जत करने की कोई कसर कब छोड़ते थे.
उस रात मेरठ में मौत का तांडव हुआ. ऐसा लगता था कि यमराज ने मेरठ शहर को पूरी तरह अपनी जकड़ में ले लिया हो. गोरी चमड़ी के लोग उस दिन यकीनन अपने श्वेत होने पर पश्चाताप कर रहे होंगे. जो जहाँ छिपा था, उसे वहाँ से खींच निकाला गया, दौड़ाया गया और तलवार, लाठी-डंडों, लोहे कि छड़ों या बंदूक की गोलियों से निशाना बनाया गया. उनके साथ कोई मुरव्वत न की गई थी.पर यह क्रांति अभी अधूरी थी. हर वह व्यक्ति इसका नेता बन गया था, जो अंग्रेजों को सबक सिखाना चाहता था, जो फिर से भारत को इस ईस्ट इंडिया कंपनी के संजाल से मुक्त कराना चाहता था, अपने देश में अपनों का राज चाहता था. पर यही दिक्कत थी. इसी कारण से अनुशासन की धज्जियाँ उड़ रही थीं. जुनून पूरा था, जज्बे में कोई कमी नहीं थी, पर बगावत का सर्वमान्य नेता भला कौन था? शायद कोई भी नहीं. इसलिए वाह्य तौर पर ब्रिटिश सत्ता का अस्त काल आकर भी अभी भी वे सत्ता के मालिक थे.उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया. कहते हैं कि धन सिंह कोतवाल अपने गांव पांचली और आस-पास के क्रान्तिकारी गुर्जर बाहुल्य गांव घाट, नंगला, गगोल आदि की जनता के सम्पर्क में था. धन सिंह कोतवाल का संदेश मिलते ही हजारों की संख्या में गुर्जर क्रान्तिकारी रात में ही मेरठ पहुंच गये थे.
सन 1857 की क्रान्ति की औपनिवेशिक व्याख्या के विपरीत आम जनता ने इस क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था. समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश के हर जाति और धर्म के लोगों जैसे जाट, गुर्जर,रजपूत, बंजारों, रांघड़ों और आदि ने 1857 की क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था. पूर्वी उत्तर प्रदेश में ताल्लुकदारों ने अग्रणी भूमिका निभाई. अनेक स्थानों पर बुनकरों और कारीगरों ने भी इस क्रान्ति में भाग लिया. सहभागिता प्रदर्शित वाले लोगों को ही 1857 की क्रान्ति का जनक कहा जा सकता है क्योंकि 1857 की क्रान्ति में जनता की सहभागिता की शुरूआत धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में मेरठ की जनता ने की थी. उनको ही 1857 की क्रान्ति का जनक कहा जाता है.
धन सिंह के विद्रोही स्वभाव के पीछे एक किस्सा था. वह यूँ है--ब्रिटिश साम्राज्य की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की कृषि नीति का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लगान वसूलना मात्र था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों ने महलवाड़ी व्यवस्था लागू की थी, जिसके तहत समस्त ग्राम से इकट्ठा लगान तय किया जाता था और मुखिया अथवा लम्बरदार लगान वसूलकर सरकार को देता था. लगान की दरें बहुत ऊंची थी, और उसे बड़ी कठोरता से वसूला जाता था. न दे पाने पर किसानों को तरह-तरह से बेइज्जत करना, कोड़े मारना और उन्हें जमीनों से बेदखल करना एक आम बात थी. किसानों की हालत बद से बदतर हो गई थी.धन सिंह कोतवाल भी एक किसान परिवार से सम्बन्धित था. किसानों के इन हालातों से वे उनका दुखी होना स्वाभाविक था. धन सिंह के पिता पांचली ग्राम के मुखिया थे, अतः अंग्रेज पांचली के उन ग्रामीणों को जो किसी कारणवश लगान नहीं दे पाते थे, उन्हें धन सिंह के अहाते में कठोर सजा दिया करते थे. बचपन से ही इन घटनाओं को देखकर धन सिंह के मन में आक्रोश जन्म लेने लगा. ग्रामीणों के दिलो दिमाग में ब्रिटिश विरोध धधक रहा था.
एक घटना ने धन सिंह और ग्रामवासियों को अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित किया. पांचली और निकटवर्ती ग्रामों में प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार घटना के अनुसार वह अप्रैल का महीना था. किसान अपनी फसलों को उठाने में लगे हुए थे. एक दिन दो अंग्रेज तथा एक मेम पांचली खुर्द के आमों के बाग में थोड़ा आराम करने के लिए रूके. इसी बाग के समीप पांचली गांव के तीन किसान जिनके नाम मंगत सिंह, नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह थे, कृषि कार्यो में लगे थे. अंग्रेजों ने इन किसानों से पानी पिलाने का आग्रह किया. किसी टिप्पणी को लेकर इन किसानों और अंग्रेजों में संघर्ष हो गया.
इन किसानों ने अंग्रेजों का वीरतापूर्वक सामना कर एक अंग्रेज और मेम को पकड़ दिया. एक अंग्रेज भागने में सफल रहा. पकड़े गए अंग्रेज सिपाही को इन्होंने हाथ-पैर बांधकर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से बलपूर्वक खेत जुतवाया. दो घंटे बाद भागा हुआ सिपाही एक अंग्रेज अधिकारी और 25-30 सिपाहियों के साथ वापस लौटा. तब तक किसान अंग्रेज सैनिकों से छीने हुए हथियारों, जिनमें एक सोने की मूठ वाली तलवार भी थी, को लेकर भाग चुके थे. इस घटना की जांच करने और दोषियों को गिरफ्तार कर अंग्रेजों को सौंपने की जिम्मेदारी धन सिंह के पिता, जो कि गांव के मुखिया थे, को सौंपी गई. ऐलान किया गया कि यदि मुखिया ने तीनों बागियों को पकड़कर अंग्रेजों को नहीं सौपा तो सजा गांव वालों और मुखिया को भुगतनी पड़ेगी. बहुत से ग्रामवासी भयवश गाँव से पलायन कर गए. अन्ततः नरपत सिंह और झज्जड़ सिंह ने तो समर्पण कर दिया किन्तु मंगत सिंह फरार ही रहे. दोनों किसानों को 30-30 कोड़े और जमीन से बेदखली की सजा दी गई. फरार मंगत सिंह के परिवार के तीन सदस्यों के गांव के समीप ही फांसी पर लटका दिया गया. धन सिंह के पिता को मंगत सिंह को न ढूंढ पाने के कारण छः माह के कठोर कारावास की सजा दी गई. इस घटना ने धन सिंह सहित पांचली के बच्चे-बच्चे के मन में विद्रोह की भावना भर दी थी.व्यापक समय तक चली इस क्रांति के दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने इन घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी. उन्होंने उस दिन की घटनाओं का भिन्न-भिन्न गवाहियों के आधार पर गहन विवेचन किया तथा एक रिपोर्ट तैयार की.
उन्होंने मेरठ में जनता की क्रान्तिकारी गतिविधियों के विस्फोट के लिए मुख्य रूप से धन सिंह कोतवाल को दोषी ठहराया. उसका निष्कर्ष था कि यदि धन सिंह अपने कर्तव्य का ठीक से निर्वहन करता तो सँभवतः मेरठ में जनता को भड़कने से रोका जा सकता था. धन सिंह को पुलिस नियंत्रण के छिन्न-भिन्न हो जाने के लिए दोषी करार दिया गया. क्रान्तिकारी घटनाओं से दमित लोगों ने अपनी गवाहियों में आरोप लगाया कि धन सिंह कोतवाल क्योंकि स्वयं गुर्जर है इसलिए उसने क्रान्तिकारियों, जिनमें गुर्जर बहुसंख्या में थे, को नहीं रोका. उन्होंने धन सिंह पर क्रान्तिकारियों को खुला संरक्षण देने का आरोप भी लगाया. एक गवाही के अनुसार क्रान्तिकरियों ने कहा कि धन सिंह कोतवाल ने उन्हें स्वयं आस-पास के गांव से बुलाया था.
रिपोर्ट में बताया गया कि 10 मई को सैनिकों ने जब एक साथ मेरठ में सभी स्थानों पर विद्रोह कर दिया था, ठीक उसी समय सदर बाज़ार की भीड़, जो पहले से ही हथियारों से लैस होकर इस घटना के लिए तैयार थी, ने भी अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया और खुल कर इन विद्रोही सैनिकों का साथ दिया. धन सिंह कोतवाल ने ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वहीं रहने का आदेश दिया. आदेश का पालन करते हुए अँग्रेजों के वफादार पुलिसकर्मी क्रान्ति के दौरान कोतवाली में ही मौजूद रहे. इस प्रकार अँग्रेजों के वफादारों की तरफ से क्रान्तिकारियों को रोकने का प्रयास नहीं हो सका, दूसरी तरफ उसने क्रान्तिकारी योजना से सहमत सिपाहियों को क्रान्ति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया.
सन 1857 की क्रान्ति की औपनिवेशिक व्याख्या के अनुसार यह क्रांति मात्र एक सैनिक विद्रोह था जिसका कारण सैनिक असंतोष था और यह कि इन सैनिक विद्रोहियों को कहीं भी जनप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था. ऐसा कहना उस जनता का अपमान है जिसने इस क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था. समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश के हर जाति और धर्म के लोगों जैसे जाट, गुर्जर, रजपूत, बंजारों, रांघड़ों और आदि ने 1857 की क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था. पूर्वी उत्तर प्रदेश में ताल्लुकदारों ने भी इसमें अग्रणी भूमिका निभाई. अनेक स्थानों पर बुनकरों और कारीगरों ने भी इस क्रान्ति में जुनून से भाग लिया. सहभागिता प्रदर्शित वाले लोगों को ही 1857 की क्रान्ति का जनक कहा जा सकता है. चूंकि 1857 की क्रान्ति में जनता की सहभागिता की व्यवहारिक शुरूआत धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में मेरठ की जनता ने की थी, अतः उनको ही 1857 की क्रान्ति के जनक कहा गया.
जब फिर से स्थिति नियंत्रण में आई तो कंपनी की हुकूमत ने इस क्रांतिकारी नायक को आनन-फानन में फांसी की सजा सुनाई. उसे चार जुलाई 1857 को मेरठ के एक चौराहे पर फांसी दी गई, ताकि लोगों में दहशत बनी रहे. पूरे पांचली ग्राम को टॉप के गोलों से उड़ा दिया गया था, जिसमें सैकड़ों किसान मारे गए, जो बच गए उनमें से 46 लोग कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को बाद में फांसी की सजा दे दी गई. पांचली गाँव के कुल 80 लोगों को फांसी की सजा दी गई थी. पूरे गांव को लगभग नष्ट ही कर दिया गया था. ग्राम गगोल के भी नौ लोगों को दशहरे के दिन फाँसी की सजा दी गई और पूरे ग्राम को नष्ट कर दिया.
सन २००१ में मेरठ के आयुक्त कार्यालय के चौराहे पर धन सिंह गुर्जर की प्रतिमा की स्थापना की गई. कम से कम इतना सम्मान तो मिला.
लेख आभार : जंडेल बैंसला।
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