ग्रेटर नोएडा। वरिष्ठ समाजसेवी एवं पूर्व विश्वक ब्लाक प्रमुख कर्मवीर नगर प्रमुख में किसान आंदोलन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि ग्रेटर नोएडा के किसानों की समस्याओं के प्रति शासन प्रशासन दिखाए संजीदगी! किसान हित के मुद्दों पर भी सत्ता और सरकार की सीमा रेखा से बाहर न जाना नजर आ रही स्थानीय जनप्रतिनिधियों की मजबूरी, विपक्षी दलों के नेता किसान आंदोलन का खुलकर करें समर्थन, किसानों का नेतृत्व करने वाले सभी नेता एकत्रित हों एक मंच पर, हालांकि ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण कार्यालय पर किसानों का धरना प्रदर्शन करने की खबरें कोई नई बात नहीं है बल्कि प्रशासन की तानाशाही रवैया की वजह से ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के विरुद्ध किसानों के आंदोलन की खबरें आम बात हो चली है। आंदोलनरत और धरनारत किसानों का नेतृत्व भले ही अलग-अलग समय पर अलग-अलग नेताओं ने किया हो लेकिन अपनी मांगों को लेकर किसान सर्दी, गर्मी और बरसात में कई बार सड़कों पर उतर कर आंदोलन करते नजर आए हैं। इस बार की भांति पहले भी मौसम की परवाह किए बगैर किसान ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण कार्यालय के सामने दिन-रात पड़े रहे। आजकल गांधीवादी नीति से ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के सामने किए गए सभी आंदोलन बेनतीजा ही साबित हुए हैं। यह बात जरूर है कि बेनतीजा आंदोलन समाप्ति के बाद आंदोलन का नेतृत्व करने वालों पर प्राधिकरण से अपने निजी स्वार्थ के काम निकालने की तोहमत जरूर मढ़ी जाती रही है।
बहराल जो भी है अगर हम सत्ता सरकारों की जनहित के मामलों में संजीदगी पर नजर डालें तो वर्तमान समय में देश और प्रदेश की सत्ता, सरकार, शासन और प्रशासन की कल्चर ही कुछ इस तरह की हो चली है कि जब तक आम जनता चीखेगी चिलाएगी नहीं तब तक कोई सुनने वाला नहीं है। क्योंकि सत्तासीन राजनीतिक दल भी अब यह जान गए हैं कि जिन जनप्रतिनिधियों को जनता चुनकर सदन में भेजती है वह अपने जनाधार के बूते नहीं बल्कि पार्टी की वोटों के बूते जीतकर सदन में पहुंचे हैं। शायद यही कारण है कि भाजपा सरकार के जनप्रतिनिधियों में जनहित के मुद्दों पर भी सत्ता और सरकार के सामने जनहित के मुद्दों को प्रस्तुत करने क्षमता नजर नहीं आ रही है। यही वह कारण है जिस वजह से गौतम बुद्ध नगर का कोई भी भगवांधारी नेता अथवा जनप्रतिनिधि किसानों की जायज मांगों के समर्थन में अपनी चुप्पी तोड़ने के लिए तैयार नहीं। बहरहाल यह सब उल्लेख करने के पीछे मेरा किसी को दोषारोपित करने का कोई इरादा नहीं बल्कि जनप्रतिनिधियों की लाचारी और मजबूरी को उजागर करना मात्र है शायद जिसे आम जनता के सामने वह स्वयं बताने में हिचकते होंगे। क्योंकि सभी राजनैतिक दलों में नेताओं की भी अपनी एक सीमा रेखा होती है और शायद सत्ता पक्ष के नेताओं की भी उसी सीमा रेखा के दायरे में रहकर बयान बाजी करना मजबूरी आ रही है है। लेकिन विपक्ष के लिए ऐसी कोई सीमा रेखा न होने के बाद भी गौतम बुद्ध नगर में विपक्षियों को भी क्षेत्रीय मुद्दों पर और किसानों की समस्याओं पर बहुत अधिक मुखर संघर्ष करते नहीं देखा गया। भले ही सत्ता और सरकार किसी भी राजनैतिक दल की रही हो।
इसके अतिरिक्त ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण से संबंधित विभिन्न किसान संगठनों की मांग और समस्याएं भले ही एक जैसी रही हैं लेकिन किसानों का नेतृत्व करने वालों के आपसी हितों के टकराव से किसान संगठन किसी भी आंदोलन में एक जुट नजर नहीं आए। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि किसानों के आंदोलन की सबसे कमजोर कड़ी और ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण प्रशासन का तानाशाही रवैया अख्तियार करने की मुख्य वजह किसान संगठनों का निजी अहम के कारण आपसी बिखराव है। प्रायः देखा गया है कि किसानों के छोटे-छोटे मामलों में भी टिकैत जैसे बड़े किसान नेताओं को आंदोलन में शरीक कर लिया जाता है लेकिन ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण क्षेत्र के किसी भी किसान आंदोलन में टिकैत जैसे बड़े किसान नेताओं को आमंत्रित न करना समझ से परे का विषय है जबकि किसान महीनों से भीषण गर्मी में सड़क पर लेटे हुए हैं। अगर सत्ता और सरकार के नजरिए से देखें तो किसानों के हित का दम्भ भरने वाली सरकार की चुप्पी भी समझ से परे है और हो भी क्यों नहीं जब सरकार और सरकार के नुमाइंदों को यह पता है कि इस क्षेत्र के आंदोलनकारी चुनाव के समय उनके द्वारा चुनाव मैदान में उतारे गए उम्मीदवारों को जिताने में ही अपना पूरा दमखम लगाते नजर आते रहे हैं। हाल ही में नगर पालिका के संपन्न हुए चुनाव इसका स्पष्ट उदाहरण है। किसान आंदोलनों की सफलता के लिए आमतौर पर लोग जाटों का उदाहरण पेश करते हैं लेकिन उनके मूल मंत्र को आत्मसात नहीं करना भी असफल होने का एक अहम कारण है। अगर इस किसान आंदोलन को सफल बनाना है और किसानों की मांगों को मनवाने के लिए प्रशासन पर दबाव बनाना है तो सभी किसान संगठनों को एक मंच पर आना होगा, क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों को भी भविष्य का आइना दिखाना होगा, विपक्षी दलों को भी उनकी नगण्य भूमिका का एहसास कराना होगा और टिकैत जैसे बड़े किसान नेताओं को आंदोलन में शरीक करना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब किसानों को पूर्व के आंदोलनों की भांति बेनतीजा अपने घर खाली हाथ लौटना पड़ेगा। तानाशाही रवैया अपनाने वाले प्रशासन को भी आगाह करना चाहूंगा कि इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस बार किसान आर पार की लड़ाई के मूढ में नजर आ रहा है इसलिए सत्ता और सरकार को भी इस किसान आंदोलन की आहट को समझना होगा अन्यथा 2024 दूर नहीं है।
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