भारत, गुर्जर जाति की उत्पत्ति प्रस्तुत अध्याय में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर गुर्जर जाति की उत्पत्ति , उसका उद्भव एवं विकास तथा उसके मूल अभिजन के विषय में निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत विवेचन किया जाएगा।
( अ ) कस्सी आर्यों से नवीन जातियों का विकास ।
(आ) गुर्जर जाति का मूल निवास स्थान एवं गुर्जर शब्द का अर्थ।
(इ) प्राचीन भारतीय ग्रंथों में गुर्जर वंशों का उल्लेख ।
(ई) चीनी साहित्य तथा इतिहास में गुर्जर वंशों का उल्लेख।
(उ) गुर्जर जाति का मध्य एशिया में शक्ति सम्पन्न होना ।
निष्कर्ष ( अ ) कस्सी आर्यों से नवीन जातियों का विकास :
“ मूल खोजना बड़ा कठिन है , नदियों का वीरों का , शस्त्र छोड़ और क्या आभूषण , होता है रणधीरों का ?''85
राष्ट्रकवि दिनकर की ये पंक्तियाँ लगभग सभी जातियों पर लागू होती हैं , परन्तु क्षत्रिय जातियों पर विशेष रूप से लागू होती हैं । क्षत्रिय जातियों में भी गुर्जर , आभीर जाट तथा खस इत्यादि जातियों के विषय में और भी अधिक सटीक बैठती है , क्योंकि आज भी ये जातियाँ विभिन्न धर्मों में अनेक देशों में पाई जाती हैं पिछले अध्याय में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि शकद्वीपी आर्यों की तीन प्रमुख शाखाओं ( 1. ) हित्ती , ( 2. ) मित्तन्नी औ ( 3. ) कस्सी का उल्लेख प्रायः सभी भाषाशास्त्रियों ने किया है । हित्ती एशिया माइनर के शासक बने तथा मित्तन्नी भी उसी ओर बोगज कोई में जाकर हित्ती आर्यों से संघर्ष करते दिखाई पड़ते हैं । मित्तन्नी स्वयं को मार्यान्नी अथवा मार्या कहते थे । वे वैदिक देव , ' इन्द्र ' ' मित्र ' ' वरुण ' ' नासत्य ' आदि की उपासना करते थे । मध्य एशिया के विस्तृत क्षेत्र में कस्सी आर्य विचरण करते रहे तथा उन्होंने बेबीलोन इत्यादि पर अधिकार कर लिया था । जिन विद्वानों की यह धारणा है कि आर्य एशिया माइनर से ईरान होते हुए भारत आए तथा कुछ शाखाएं मध्य एशिया , जर्मनी , दक्षिणी रूस तथा यूरोपियन देशों में पहुँचे थे , उनमें से किसी भी विद्वान ने अभी तक इस विषय में कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया है कि , जब विश्व मनीषा में यह स्वीकार कर लिया है कि अभी तक ज्ञात एवं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर वेद विश्व के प्राचीन ग्रंथ हैं तथा ऋग्वेद की भाषा से पुरानी भाषा के प्रमाण अन्यत्र नहीं मिलते हैं तो एशिया माईनर के विभन्न स्थानों विशेषकर बोगज कोई ( Boghaz Koi ) से प्राप्त वैदिक देवताओं के नाम वहाँ कैसे पहुँच गए । इस प्रश्न का यहाँ यह उत्तर दिया जा सकता है कि एशिया माईनर की भारोपीय भाषा वैदिक भाषा से भी प्राचीन है , तब यह प्रश्न उठता है कि जब वहाँ इतनी उन्नत भाषा के नमूने मिले हैं तो वहाँ वैदिक मान्यताओं से मिलती - जुलती धार्मिक अथवा साहित्यिक कृतियाँ क्यों नहीं मिली हैं । दूसरी बात यह है कि पश्चिमी एशिया एवं एशिया माईनर से प्राप्त देवताओं के जो नाम मिले हैं , क्या उनके अर्थ वही हैं जो ऋग्वैदिक देवताओं के हैं ? यदि आर्य एशिया माईनर से ईरान होते हुए भारत आए थे तो उन के धार्मिक विश्वास तथा मान्यताओं का ऋग्वेदिक आर्यों से साम्य था , इसका कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है । इन सब पहलुओं पर विचार करने के उपरांत यही निष्कर्ष निकलता है कि आर्यों का मूल अभिजन जम्बू द्वीप ही था और अपनी संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया की प्रारंभिक अवस्था में उन्होंने ईरान तक के क्षेत्र पर आधिपत्य कर लिया था , और तत्कालीन आर्यावर्त के उत्तर में महासागर के सूखने पर वैवस्वत मनु के जेष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु के पुत्रों के नेतत्त्व में आर्यों ने शकद्वीप के नाम से नया द्वीप बसाया था । नरिष्यन्त के पुत्र भी वहाँ गए । उसके पश्चात समय - समय पर आर्य वहाँ पहुँचते रहे । रामचन्द्र जी के पुत्र कुश ने भी शकद्वीप ( मध्य एशिया ) में पहुँच कर आर्य संस्कृति के संवर्द्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । कुश के पश्चात भी आर्य उत्तरापथ में स्थित शकद्वीप ( आधुनिक मध्य एशिया ) में पहुँचते रहे , यहाँ तक कि मौर्यवंशीय सम्राट अशोक के समय भी भारतीय वहाँ पहुँचते रहे । व्यापारी तथा धर्म प्रचारकों का भारत से मध्य एशिया तथा मध्य एशिया से भारत आना - जाना लगा रहता था । जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि शकद्वीपी आर्यों की तीन प्रधान शाखाओं में से हित्ती तथा मित्तन्नी शाखाओं ने शकद्वीप ( मध्य एशिया ) को छोड़कर पश्चिमी के प्रदेशों की ओर अभियान किए थे । जब धीरे - धीरे एशिया माईनर के प्रदेशों में पहुँचे तब तक उनकी भाषा में , धार्मिक मान्यताओं एवं परम्पराओं में स्थानीय प्रभाव पड़ने के कारण बहुत परिवर्तन आ चुका था । आर्यों की जो तीसरी शाखा कस्सी थी , वह बेबीलोन तक सीमित रही । वहीं उसने बेबीलोन की सभ्यता को जन्म दिया । कुछ विद्वानों का विश्वास है कि सिंधु घाटी की हड़प्पा संस्कृति के जन्मदाता भी कस्सी आर्य ही थे । मध्य एशिया के विस्तृत क्षेत्र में कस्सी आर्यों की भी कई शाखाओं का विकास हुआ था । जिनमें परसु ' मेद ' तथा शक प्रमुख थीं । ईरान के उत्तरी भाग में परसु तथा ' मेद ' शाखाओं का वर्चस्व स्थापित हुआ । परसु आर्य जर्मनी इत्यादि की ओर गए जबकि ' मेद ' परवर्ती काल में परसियन ( फारसी ) कहलाए । इसी कारण ईरान का एक पुराना नाम फारस भी है । मध्य एशिया के विशाल क्षेत्र में विचरण करने वाली शक शाखा को भाषा विज्ञान के विद्वानों ने शक्तिशाली कहकर संबोधित किया है । इस संबंध में डॉ . सुनीति कुमार चटर्जी का कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है।
क्रमश:
रामधारी सिंह दिनकर : रश्मिरथी ( प्रथम सर्ग )
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