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न्यायालय में धार्मिक ग्रंथों पर हाथ रखकर कसम खिलाने की प्रथा शुरुवात मुगल शासन के दौरान हुई थी।

फ्यूचर लाइन टाईम्स, लेखक मनोहर भाटी।
मुगल शासन के समय ऐसा माना जाता था कि यदि किसी को गीता या कुरान की कसम खिलवाकर कोई गवाही करवाई जाए तो वो ईश्वर के डर से सच ही बोलेगा। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि पहले समय मे लोग अपने धर्म को बहुत महत्व देते थे तथा ईश्वर से डरते भी थे।
जब अंग्रेज़ो ने भारत पर कब्ज़ा करके शासन करना शुरू किया तो उन्होंने इस प्रथा को एक कानून भारतीय शपथ अधिनियम 1873 लागू करके समाप्त कर दिया।
तो धार्मिक ग्रंथों पर हाथ रखकर कसम खिलाने की प्रथा का अंत होने की बात अंग्रेज सरकार ने अपने बनाये कानून भारतीय शपथ अधिनियम 1873 में यूनिवर्सल गॉड यानी एक ईश्वर का कांसेप्ट कर दिया और अब शपथ किसी धर्म विशेष की किताब पर हाथ ना रखकर केवल ये होती थी "मैं ईश्वर की शपथ लेता हूँ" मगर कौनसे ईश्वर की ये उस व्यक्ति के धर्म अनुसार अपने आप मान ली जाती थी।
अब क्योंकि अंग्रेज़ो के कानून ने इस प्रथा का अंत कर दिया था, परंतु आज़ादी के बाद भारत के कोर्ट अपने अलग-अलग नियमो से संचालित होने के कारण अपने नियम बना सकते थे तो बम्बई हाई कोर्ट ने इस प्रथा को जारी रखा और जिस धर्म का गवाह होता था उस धर्म के ग्रंथ पर हाथ रखवाकर उससे गवाही से पहले कसम खिलवाई जाती थी।
इसीलिये फिल्मों में ये सीन लगातार दिखाया गया कि गवाह गवाही से पहले गीता पर हाथ रखकर कहता था कि "जो कुछ भी कहूँगा सच कहूँगा, सच के सिवा कुछ नही कहूँगा" एक और मज़ेदार बात कि, अगर कोई गवाह नास्तिक हो तो उसको किस धर्म ग्रंथ की शपथ दिलवाई जाए ? क्योंकि नास्तिक तो किसी भी धर्म ग्रंथ पर हाथ रखकर भी झूठ बोल सकता है।
यह सवाल हकीकत में भी 28वी लॉ कॉमिशन रिपोर्ट में उठा कि कोई नास्तिक तो किसी भी धर्म ग्रंथ की झूठी कसम खा सकता है। इस सवाल के कारण ही भारत मे शपथ अधिनियम, 1969 (1969 का अधिनियम संख्या 44) दिनांक 26 दिसंबर 1969 को लागू हुआ और धार्मिक ग्रंथों पर हाथ रखकर शपथ दिलवाने की प्रथा का पूरी तरह से अंत करके इसपे रोक लगा दी गई।
"इसप्रकार 1969 के बाद से भारत के किसी भी न्यायालय में धार्मिक ग्रंथों पर हाथ रखकर कसम खिलवाना बंद कराया जा चुका है।

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