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आज की पीढ़ी इस एडवेंचर से महरूम है। रघुराज सिंह

फ्यूचर लाइन टाईम्स, मनोज तोमर ब्यूरो चीफ गौतम बुद्ध नगर। नोएडा। दादरी विधानसभा कांग्रेस के पूर्व प्रत्याशी रघुराज सिंह ने फ्यूचर लाइन टाईम्स हिंदी समाचार पत्र के संवाददाता को अपने विचार रखते हुए बताया कि हमारे जमाने में साइकिल तीन चरणों में सीखी जाती थी। कैंची, डंडा व गद्दी ...
तब साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी पर बैठ कर चलाना संभव नहीं होता था,
कैंची वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे,
जब हम ऐसे चलाते थे तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और टर्न टर्न करके घंटी इसलिए बजाते थे ताकी लोग देख सकें की लड़का साईकिल चला रहा है ।
आज की पीढ़ी इस एडवेंचर से महरूम है उन्हे पता ही नही की आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना जहाज उड़ाने जैसा होता था।
हमने ना जाने कितने दफे अपने घुटने और मुंह तोड़वाए है,  गज़ब की बात ये है कि तब दर्द भी नही होता था, गिरने के बाद चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा झाड़ते हुए।
अब तकनीकी ने बहुत तरक्क़ी कर ली है पांच साल के होते ही बच्चे साइकिल चलाने लगते हैं वो भी बिना गिरे।  दो फिट की साइकिल आ गयी है, और अमीरों के बच्चे तो अब सीधे गाड़ी चलाते हैं छोटी सी बाइक उपलब्ध हैं बाज़ार में,
मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी  उम्र में बड़ी साइकिल पर संतुलन बनाना जीवन की पहली सीख होती थी!  जिम्मेदारियों की पहली कड़ी होती थी जहां आपको यह जिम्मेदारी दे दी जाती थी कि अब आप गेहूं पिसाने लायक हो गये हैं ।
इधर से चक्की तक साइकिल धकेलते हुए जाइए और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आइए ! गिरने पर घुटने छिल जाए तो भी डांट पड़ती थी कि देख कर नही चला सकते थे आज.....?
 यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी।
और ये भी सच है की हमारे बाद कैंची प्रथा खत्म हो गयी,
हम लोग  की दुनिया की आखिरी पीढ़ी हैं जिसने साइकिल चलाना तीन चरणों में सीखा !
पहला_कैंची
दूसरा_ डंडा
तीसरा_ गद्दी
हम वो आखरी पीढ़ी  हैं, जिन्होंने कई-कई बार मिटटी के घरों में बैठ कर परियों और राजाओं की कहानियां सुनीं, जमीन पर बैठ कर खाना खाया है, प्लेट में चाय पी है।
हम वो आखरी लोग हैं, जिन्होंने बचपन में मोहल्ले के मैदानों में अपने दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे जैसे खेल खेले हैं । आज के इस विलासिता भरे जीवन से वो आनंद भरा जीवन जीवन था आज तो संसाधन के बाबजूद भी जीवन एक घूमता फिरता पुतले समान है ।

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