हम ब्रह्मरूप को करें धारण : डा.अशोक आर्य
फ्यूचर लाइन टाईम्स
परमपिता परमात्मा के असीम अर्थात् न समाप्त होने वाले गुणों के कारण सब लोग उस पिता को पाने की इच्छा रखते हैं तथा उसके प्यारे स्वरूप को अपनी आँखों में समाये रखना चाहते हैं| इस बात की ही यहाँ चर्चा की गई है| यथा:- रूप छाता आँखों में भरे सब को तेज से भरने वाले हे तेजस्वी प्रभो! हम चाहते हैं कि धर्म की स्थापना के कार्य करने वाला दीप्ती से भरा हुआ आपका रूप हमारी आँखों के सामने सदा झूलता रहे| आप की वह विभूति जो श्री अर्थात् धनधान्य से भरने वाली है तथा आपकी वह शक्ति जो सब कार्यों को करवा पाने की क्षमता रखती है, यह दोनों ही पृथिवी के कण-कण में विराजमान रहते हुए इन शक्तियों का आघान कराती हैं , यह दोनों विभूतियाँ मेरी पलकों में सदा समाई रहें| आपकी ऐसी अपार लीला है जो एक पंगु को, असहाय व्यक्ति को भी पर्वत जैसी ऊँचाइयाँ पार करने की क्षमता देती हैं, आपकी कलाएं भी एसी हैं जो सब ओर आनंद को बढाने वाली होती हैं| यह सब न केवल पृथ्वी मात्र ही अपितु नभ मंडल तक भी फैली हुई हैं तथा इस प्रकार आपकी रूप छटा को इस प्रकार बिखेर रही हैं कि यह छटाएं हमारी आत्मा में भरी चली जाती हैं | प्रेम की पराकाष्ठा का नाम ही प्रगति हे प्रभो! आप स्नेह के सिन्धु हैं| इस नाते जब आप सुख देने वाले पदार्थों से युक्त पुष्कल की वर्षा करते हो और पृथिवी पर वर्षा करने वाले मेघों के समूह में उमड़ते हुए जिस प्रेम के हमें दर्शन होते हैं, इससे हमारा हृदय पुलकित और पवित्र हो जाता है| श्रुति अर्थात् वेद ने जिसे प्रिय ब्रह्म कहा है तथा आपके सार सर्वस्व के रूप में जिस प्रेम की उद्घोषणा की है उस प्रेम की पराकाष्ठा का नाम ही प्रगति है, जिसे प्रभु प्राप्ति भी कहते हैं अर्थात् इससे ही आप की प्राप्ति संभव हो पाती है | सुख की समयसीमा कभी समाप्त न हो सब स्थानों पर विद्यमान हे विराट प्रभु! आप की आकरर्षक रूपसुधा से मैं आकर्षित हूँ| मैं इस रूपसुधा का पान कर रहा हूँ| इस के पान से हमारे अन्दर की सब कुरूपता नष्ट हो रही है| कुरूपता के नष्ट होने से मेरी नस-नस में नवजीवन का संचार हो रहा है| इतना ही नहीं मेरे अन्दर एक निराली सी मस्ती आ गई है, इस मस्ती के कारण मैं मरण से निरंतर दूर होता चला जा रहा हूँ और मुझे अमृत्व की प्राप्ति हो रही है| हम चाहते हैं कि आपकी विराटता के सम्पूर्णरूप से हममें रूपांतरण हो| इस से हम भी आपही की भाँति प्रेम से भर जावें, धर्म में विचरण करने लगे हैं और तेज हमारी रग-रग में आ जावे| हम अल्प न रहें अपितु हम “भूमा” बनें| हमारे सब बंधन टूट जावें और हम बृहत् अर्थात् हम विराट बनें| हमारे जितने भी संशय अथवा शंकाएं हों वह सब भी छिन्न-भिन्न हो जावें, नष्ट हो जावें| इस प्रकार हम “शिव” बनें| हम कहीं भी द्वैत अर्थात् एक दूसरे के लिए विरोध या द्वन्द्व की अवस्था में न आवें| इतना ही नहीं हम ने चाहा है कि हमें जो आनंद मिल रहा है, वह लम्बे समय तक कभी न समाप्त होने वाली अवस्था में रहे, इसकी समय सीमा कभी समाप्त न हो| स्वर्गिक सृष्टि की रचना हे सवितारूप प्रभो! आपमें और हममें पूर्ण रूप से संवाद बना रहे, यह संवादिता कभी समाप्त अथवा कम न हो| संवाद के साथ ही साथ हम चाहते हैं कि हम में जो तेज है, वह भी निरंतर बना रहे, कभी कम न हो| हमारे और आपके हृदय तंत्रियों के संवाद के तार भी परस्पर सदा के लिए बने रहें, यह कभी बाधित न हों| हे पिता! आप सुरों की तारों को छेडना आरम्भ करें| आप ज्यों ही सुरों को छेड़ोगे त्यों ही हम आपके राग और रागनियों को सुनने लगेंगे| ज्यों ही आप अपने सुरों को ताल देंगें, त्यों ही हम भी आपको अपने नृत्य का उपहार पेश करने लगेंगे| आपकी प्रेरणा जब तक हमारे पास आवेगी तब तक हम भी प्रवृति को देने की अवस्था में आ जावेंगे| ज्यों ही आप हमें दृष्टि देते हो त्यों ही हम भी स्वर्गिक सृष्टि की रचना आरम्भ कर देते हैं| हे पिता! हमारे जीवन रूपि रथ का संचालन का कार्य जब आप के अपने ही अमृतमयी पवित्र हाथों से हो, यह हमारे सौभाग्य का विषय है
0 टिप्पणियाँ