फ्यूचर लाइन टाईम्स
आओ आज हम अष्टांग योग के विषय में संक्षिप्त में चर्चा करते हैं। जब व्यक्ति अपने विवेक को जागृत करता है तो उसे यथार्थ जान होता है अर्थात जो वस्तु जैसी है उसे फिर भी वैसी ही जानता है वैसी ही मानता है। फिर वह अपने शरीर का चिंतन करता है कि है शरीर तो परिवर्तनशील है इसमें नित्य निरंतर परिवर्तन हो रहा है। बचपन से युवावस्था फिर वृद्धावस्था फिर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। वह अपने चारों ओर की वस्तुओं का परिशीलन करता है, संसार का परिशीलन करता है, तो वह पाता है कि यह तो समस्त संसार ही परिवर्तनशील है। यहां तो सब कुछ बदल रहा है कुछ भी स्थाई नहीं है। और परिवर्तनशील वस्तुओं में स्थाई सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस स्थाई सुख को प्राप्त करने के लिए, आनंद को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को फिर वैराग्य की भावना होती है। अर्थात इन प्राकृतिक वस्तुओं से, भौतिक वस्तुओं से अलग होकर वह ईश्वर के आनंद को प्राप्त करना चाहता है। ईश्वर के आनंद का प्राप्त करने का एकमात्र उपाय अष्टांग योग है। दूसरा कोई मार्ग संसार में ईश्वर को प्राप्त करने का नहीं है। ऋषि यों ने और वेदों ने जिस अष्टांग योग का वर्णन किया है, संक्षेप में उसे जानने का हम प्रयास करते हैं।
अष्टांग योग जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इसके 8 अंग हैं। योग का अर्थ शास्त्र की भाषा में होता है समाधि अर्थात आत्मा का ईश्वर से साक्षात्कार या मेल। इन आठ अंगों में प्रथम अंग है यम। यम पांच प्रकार के होते हैं जो हमें बाह्य सुरक्षा प्रदान करते हैं।
१ - अहिंसा - अर्थात मन वचन व शरीर से किसी को अकारण किसी प्रकार का कोई भी कष्ट न देना। यदि कारण उपस्थित है तो भले ही लाखो हजारों व्यक्तियों की हत्या भी करनी पड़े तो कर देंगे। लेकिन यदि कारण ना हो तो बिना कारण के एक चींटी को भी कष्ट नहीं देना चाहिए यह अहिंसा कहलाता है।
२ - सत्य - जैसा अपने अंतरात्मा में हो जैसा अपने मन में हो उसी को प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सुपरिक्षित करके वाणी पर लाना बोलना कहना सत्य कहलाता है।
३ - अस्तेय - किसी दूसरे के पदार्थ को उसकी आज्ञा के बिना ग्रहण न करना ना लेना चोरी त्याग अर्थात् अस्तेय कहलाता है। दूसरे के पदार्थ को मन से भी लेने की इच्छा ना करनी यह अस्तेय कहलाता है।
४ - ब्रह्मचर्य - ब्रह्म नाम ईश्वर का है, वेद का है, ज्ञान का है, वीर्य का है। ब्रह्मचर्य का पालन करना अर्थात ईश्वर के विषय में जानना उसकी आज्ञाओं को मानना। वेद और वेद अनुकूल सत्य शास्त्रों का अध्ययन करना, उनसे विद्या प्राप्त करना, उनसे ज्ञान प्राप्त करना और वीर्य का रक्षण करना यह ब्रह्मचर्य कहलाता है।
५ - अपरिग्रह - अर्थात अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह ना करना जितनी जितनी जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उतना ही उन व्यवस्थाओं का संग्रहण करना अनावश्यक वस्तुएं अनावश्यक विचार अनावश्यक तथ्य इकट्ठे ना करना यह अपरिग्रह कहलाता है।
नियम
नियम हमें अभ्यंतर सुरक्षा तंत्र प्रदान करते हैं अर्थात ये आंतरिक सुरक्षा प्रदान करते हैं इसमें प्रथम है -
१ - शौच - अर्थात स्वच्छता, पवित्रता, निर्मलता। यह दो प्रकार की होती है वाह्य स्वच्छता और अभ्यंतर स्वच्छता। वाह्य स्वच्छता में जल के द्वारा हम अपने शरीर को स्वच्छ करते हैं, वस्त्रों को स्वच्छ करते हैं, अपने घर अपने आंगन अपने आसपास का स्थान हम स्वच्छ रखते हैं पवित्र रखते हैं यह वाह्य स्वच्छता है। तथा से अपनी बुद्धि, मन आत्मा को राग,द्वेष मोह से अलग कर पवित्र रखें यह आंतरिक स्वच्छता है।
२ - संतोष - अपने पूर्ण पुरुषार्थ के बाद परमपिता परमात्मा की न्याय व्यवस्था से जो भी हमें फल प्राप्त होता है उसी पर हम संतुष्ट रहें और पुनः अपने पुरुषार्थ में जुटे रहें। यदि फल कम मिला है तो ऐसा नहीं कि हम पुरुषार्थ करना बंद कर देंगे ।
३ - तप - श्रेष्ठ कार्यों की सिद्धि के लिए द्वंदों को सहना। हानि-लाभ, सुख-दुख, यश-अपयश, निंदा-स्तुति, हानि- लाभ, भूख- प्यास, सर्दी-गर्मी, आदि को सहन करते हुए श्रेष्ठ कार्यों की सिद्धि करना लक्ष्य की प्राप्ति करना यह तप कहलाता है।
४ - स्वाध्याय अर्थात आर्ष ग्रंथों का पढ़ना पढ़ाना वेद और वेद अनुकूल सत्य शास्त्रों का पढ़ना पढ़ाना ही स्वाध्याय कहलाता है।
५ - ईश्वरप्राणिधान अर्थात अपने द्वारा किए गए समस्त कार्यों को ईश्वर के प्रति समर्पित करते जाना जो भी हम कार्य करते हैं उसमें ईश्वर की ही सहायता लेकर हम कार्य करते हैं अपना बल बुद्धि विद्या सामर्थ सब ईश्वर से ही प्राप्त होता है उसी के सामर्थ से हम यह कार्य करते हैं इसलिए इन समस्त कार्यों को ईश्वर को ही समर्पित करते जाना यह ईश्वर प्रधान कहलाता है।
३ - आसन
भूमि पर आसन बिछाकर कमर गर्दन सीधी रखते हुए सुख पूर्वक अवस्था में बैठना शासन कहलाता ह।
४ - प्राणायाम - प्राणायाम चार प्रकार का होता है ।
वाह्य प्राणायाम। श्वास को बाहर छोड़कर बाहर रोक दिया जाता है। जब मन घबराने लगता है दम सा घुटने लगता है तो धीरे-धीरे सांस को फिर अंदर भर लेते हैं। 2-3 सेकंड अंदर रोक कर पुनः बाहर छोड़ दिया जाता है। यह वाह्य प्राणायाम है।
अभ्यंतर प्राणायाम। श्वास को धीरे धीरे अंदर भर के अंदर ही रोक लेते हैं । यथा सामर्थ्य अंदर रोके रखते हैं। जब घबराहट होने लगती है तो सांस को बाहर छोड़ देते हैं।
स्तंभवृत्ति। सामान्य स्वास प्रस्वासचलती रहती है। और अचानक सांस को कहीं भी रोक देते हैं अंदर बाहर अथवा बीच में कहीं भी अपने संकल्प मात्र से कहीं भी रोक देना है। चौथा प्राणायाम सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं।
५ - प्रत्याहार - मन को इंद्रियों के विषयों से हटाकर चित् पर लगाना प्रत्याहार कहलाता है।
६ - धारणा - मन को किसी एक स्थान पर रोक देना धारणा कहलाता है ।जैसे हृदय प्रदेश में ,नाभि प्रदेश में, नासिका के अग्रभाग पर, जिव्हा के अग्रभाग पर, कंठ कूप में कहीं भी एक स्थान पर मन को टिका देना। यह धारणा कहलाता है।
७- ध्यान - जहां पर धारणा की है उसी स्थान पर ईश्वर का ध्यान करना । दूसरा कोई विषय मन में ना लाना। केवल ईश्वर के ही विषय में विचार करना। यह ध्यान कहलाता है।
८ - समाधि- यह अष्टांग योग का आठवां चरण है ।समाधि की अवस्था में पहुंचकर ही योगी को ईश्वर साक्षात्कार होता है। यह संक्षेप में अष्टांग योग का वर्णन किया जहां कोई शंका हो वहां आप पूछ लेना।
धन्यवाद।
आर्य कृष्ण 'निवाड़ी'
८९३७०७१८८२
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