फ्यूचर लाइन टाईम्स
नोएडा ः हालांकि इससे मजदूरों की भौतिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता है फिर भी यह विवाद का विषय बना। अतिथि वह होता है जो कुछ समय के लिए कहीं जाता है। और प्रवासी? काफी सोच विचार के बावजूद मुझे इसमें कोई भिन्नता समझ नहीं आयी। दरअसल विवाद यह खड़ा किया गया कि अपने ही देश में कोई प्रवासी कैसे हो सकता है।मेरी जानकारी के अनुसार जैन संत प्रवास करते हैं और ऐसा करने के लिए वे विदेश नहीं जाते। बौद्ध धर्म में भी भंते और भिक्षुक भिक्षुणी प्रवास करते हैं। सरकारी अधिकारी जमीनी हकीकत से रूबरू होने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र के किसी गांव या कस्बे में रात्रि प्रवास करते हैं। यहां तक कि पशु-पक्षी भी ऋतुओं के अनुसार एक से दूसरे स्थान पर प्रवास करते हैं। फिर देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आने वाले मजदूरों को प्रवासी कहने से क्या समस्या है। उन्हें अतिथि कहा जाना भी गलत नहीं है परंतु अतिथि के कहीं रहने की एक समय-सीमा होती है। उसके आदर सत्कार की भी वही समय-सीमा है जबकि प्रवासी के लिए ऐसी कोई समय-सीमा नहीं होती है। प्रवासी का सामान्यीकरण यही है कि वह यहां का मूल निवासी तो नहीं है परंतु रहता यहीं है। अतिथि को यह अधिकार कभी हासिल नहीं हो सकता। तो क्या प्रवासी श्रमिकों के यहां वहां के मूल निवासियों के साथ रहने के उनके अधिकार को अतिथि कहकर सीमित किया जा सकता है? मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं क्योंकि यदि कोई अपने देश में प्रवासी नहीं हो सकता है तो अतिथि कैसे हो सकता है
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