फ्यूचर लाइन टाईम्स
योगाभ्यास का विषय मन है। इसीलिये योग को Science of Mind कहा गया है। योगदर्शन में मन को चित्त कहा गया है। चित्त एक पारिभाषिक शब्द है जिससे अन्तःकरण चतुष्टय का अभिप्राय है।वैदिक वाङ्गमय में मन (Mind), बुद्धि (Intellect), चित्त ( Consciousness) और अहंकार (Ego/ Will) को अन्तःकरण चतुष्टय (Four - fold Internal Organism) कहा गया है। मन का कार्य है संकल्प - विकल्प करना, बुद्धि का कार्य है सत्यासत्य का भेद करना, चित्त का कार्य है चेतना व संवेदना और अहंकार का क्षेत्र है कर्म करना। सामुहिक रूप में इन सभी कार्यों को करने वाले योगदर्शन के पारिभाषिक शब्द 'चित्त' को हमने यहां मन ( Mind ) कहा है जो अधिक प्रचलित शब्द है।
जब योग का विषय मन है, तो मन के विषय में जानना अत्यावश्यक हो जाता है। एक बार स्वामी शिवानन्द से किसी ने पूछा कि मनुष्य का सब से बड़ा शत्रु कौन है? स्वामी जी ने उत्तर दिया " मन "। यह अक्षरशः सत्य है।
सभी कुकर्म मनुष्य मन के वश हो कर करता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कलह, ईर्ष्या, घृणा, हत्या, अत्याचार, बलात्कार आदि सभी मन की उपज हैं। सभी विचार सर्वप्रथम मन में उपजते हैं, तदुपरान्त मन ही, उनको क्रियान्वित करने की व्यवस्था करता है और उन्हें सम्पन्न करता है। यही कर्म है, यही कर्म बन्धन कहलाता है।
इस संदर्भ में एक अति उपयुक्त सूक्ति है :
यन्मनसाध्यायति तद्वाचा वदति
यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति
यत्कर्मणा करोति तदपिसम्पद्यते।
अर्थात् मनुष्य जो कुछ मन से सोचता है, वह वाणी से बोलता है, जो बोलता है, उसे क्रियान्वित करता है; जैसा करता है, वैसे फल को प्राप्त करता है, अर्थात् सुख - दु:ख की व्यवस्था को प्राप्त होता है।
इस संदर्भ में, यह भी सत्य है कि यदि स्वामी शिवानन्द से पूछा जाता कि मनुष्य का सब से बड़ा मित्र कौन है तो उन्होंने उत्तर दिया होता "मन"। इस उत्तर पर चकित मत होईये। यह कथन शास्त्र सम्मत एवं तर्क संगत है।
मैत्रायणि उपनिषद् (4.4 ट) का कथन है :
'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः'
अर्थात् मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है। यदि मन मनुष्य के बन्थन का कारण बनता है तो उसका शत्रु है और यदि मोक्ष का कारण बनता है तो वह उसका परम मित्र बन जाता है।
John Milton ने Paradise Lost में कहा है :
The Mind in its own place and in itself
Can make a heaven of hell and hell of heaven.
अर्थात् मन अपने स्थान एवं अपने अन्दर ही
स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग बना सकता है।
मन एक जड़ पदार्थ है। अपने आप में न तो यह हमारा भला कर सकता है और न बुरा। यह एक छुर्री के समान है। चाहो तो सावधानीपूर्वक इसका उपयोग करके फल- सब्ज़ी काट लो, अगर असावधानी से प्रयोग करो तो उंगली काट लो।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पाश्चात्य दर्शन में मन चेतन (Conscious) है, भारतीय दर्शन में मन अचेतन (जड़)। मन का स्वामी जीवात्मा है जिससे यह सम्बद्ध है। कर्म जीव करता है, मन नहीं। फल भी जीव ही भोगता है, मन नहीं क्योंकि मन जड़ है। केवल चेतन तत्त्व ही सुख-दुःख का अनुभव कर सकता है, जड़ पदार्थ नहीं।
यदि मन चेतन नहीं, चेतन दिखाई क्यों देता है? मन अपनी चेतनता अपने स्वामी आत्मा से ठीक उसी प्रकार ग्रहण करता है जैसे चन्द्र सूर्य की किरणों से देदीप्यमान हो जाता है या लोहकण चुम्बक के सान्निध्य में चुम्बकीय शक्ति ग्रहण कर लेते हैं।
आत्मा मन एवं शरीर के माध्यम से कार्य/कर्म करता है ; अशरीरी अवस्था में कार्य नहीं कर सकता। कर्ता एवं भोक्ता जीवात्मा ही है। जिस प्रकार एक कम्प्यूटर या रोबोट के सभी कार्यों का संयोजक Software Engineer होता है , उसी प्रकार मन द्वारा किये सभी कार्यों का कर्ता एवं प्रेरक आत्मा ही होता है।
मन के विषय में यह जानना भी आवश्यक है कि मन निरन्तर अहिर्निश कार्य करता रहता है। जब आप सो रहे होते हैं, यह स्वप्नों में व्यस्य रहता है। समस्या यह है कि मन ,जो हम चाहते हैं, वह नहीं सोच रहा होता। बालक पुस्तक पढ़ रहा है, परन्तु उसे समझ कुछ नहीं आ रहा क्योंकि उसका मन खेल के मैदान में है। हम घर में परिवारजनों के साथ खाना खा रहे हैं परन्तु हमारा मन दफ़तर की समस्याओं में डूबा है। इसे absent-mindedness, मन का वहां उपस्थित न होना, कहा जाता है।
बस यही मर्म है योग का। -- 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः'।
चित्त अथवा मन की गतिविधि को नियंत्रित करना। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस दिशा में मन को एकाग्र करना चाहते हैं , लौकिक विषयों में जैसे न्यूटन ने गिरते हुए सेब पर ध्यान लगाया और
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को ढूंड निकाला, या आध्यात्मिक विषयों में जैसे हमारे ऋषि- मुनियों ने मोक्ष की प्राप्ति की।
बुल्ले शाह का कथन है :
ओ बुल्लेया! रब दा की पांणा।
इत्थों पुटणा ते इत्थे लांणा ।।
मन को सांसारिक प्रलोभनों से उखाड़ना,
और आध्यात्मिक विषयों/परमात्मा में लगाना।
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