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नवधा भक्ति का रूप है संध्या –  खंड 1 .1    डा.अशोक आर्य 

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



लोकहिताकारिणी भक्ति के लिए भागवत पुराण में ७.५.२३ के अंतर्गत कहा गया है कि :
                   श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् 
                   अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनम् || 
भक्ति के नौ साधन 
मनुष्य की सब प्रकार की रागात्मक वृत्तियों को पूर्णतया शुद्ध करने का यदि कोई एक मात्र साधन है तो वह है प्रभु भक्ति , जो कि सदैव लोकहितकारिणी होती है | प्रत्येक व्यक्ति आनंद में रहते हुए धर्म में प्रवृत्त रहना चाहता है और इस प्रवृति को पाने का यह सुगमतम मार्ग है | इसलिए प्रभु सर्वसाधारण व्यक्ति के लिए यह अति उपयोगी है कि उसके लिए भक्ति – तत्त्व का नित्य नए - नए शब्दों में , नई नई विधियों से निरूपण किया जावे | ऊपर दिए भागवत् के श्लोक में भागवतकार ने श्रवण, कीर्तन ,प्रभु स्मरण, उसकी अर्चना, उस प्रभु की वन्दना , दास्य भाव , मित्रभाव तथा पादसेवन यह जो नौ बातों को भक्ति का साधन बताते हुए स्वीकार किया है , इन से भक्ति तत्त्व को समझने – समझाने में सामान्यजन को अच्छी सुविधा मिल जाती है |    
           शांडिल्य सूत्र ने भी भक्ति के लिए कुछ लक्षण दिया है जो इस प्रकार है :-
                          सा (भक्ति:) परानुरक्तिरीश्वरे
परानुरक्ति ही भक्ति 
           इसका भाव है कि ईश्वर के प्रति अत्यधिक अनुरक्ति ( जिसे प्रानुरक्ति भी कहते हैं |) अर्थात् निरतिशय प्रेम को ही भक्ति कहते हैं |
भक्ति तत्त्व को समझाने का ऋषि का प्रयास 
समय - समय पर विचारों में क्रान्ति आया करती है | कुछ एसा ही  भक्ति के सम्बन्ध में भी हुआ | पुराणों के निर्माण को सैंकड़ो वर्ष बीतने पर विचारों में एक बार फिर से क्रान्ति आई |  इन विचारों के परिवर्तन से काल की परिस्थितियों में भी परिवर्तन आया | इस परिवर्तन के परिणाम स्वरूप हमारी जीवन पद्धति भी बदल गई |
भक्ति पर ऋषि का दृष्टिकोण 
इस सब परिवर्तन को महर्षि ने देखा समझा तथा इस के अवलोकन के पश्चात् उन्होंने भक्ति के सन्दर्भ में यह सब काफी न समझते हुए भक्ति – तत्त्व का और अधिक व्यापक और स्पष्ट शब्दों में इसका निरूपण करने की आवश्यकता का अनुभव किया | आज तो समय ही तर्क – प्रधान है | छोटी - छोटी बात पर आज के बुद्धिजीवी लोग अपने तर्क देते हुए मीन मेख निकालने लगते हैं | अत: यह बुद्धिजीवी तथा तार्किक प्रवृति के लोग जिस भाशा में समझते हैं , उन्हें उनकी ही भाषा में भक्ति के नौ अंगों को समझाने का ऋषि ने प्रयत्न किया |
जीवन का सम्पूर्ण व्यवहार ही भक्ति 
             महर्षि का मानना था कि भक्ति हमारे जीवन का कोई एसा कर्म नहीं है कि जिसकी पूर्ति के लिए मंदिर में जाना आवश्यक हो | यह वह कर्म भी नहीं है जिसे किसी मंदिर में जा कर कुछ समय में ही संपन्न कर लिया जावे | ऋषि तो जीवन के सम्पूर्ण व्यवहार को ही भक्ति मानते थे | अत: उन्होंने जीवन के समग्र व्यवहार को ही एक साथ गूंध देने के प्रयत्न का नाम ही भक्ति बताया और इस प्रकार का प्रयत्न भी किया | महर्षि ने एक विशेष प्रकार की भक्ति आरम्भ की | इस इसके अंतर्गत इस भक्ति की पद्धति में मानव जीवन सर्वांगीण विकास का भी ध्यान रखा गया | महर्षि द्वारा प्रतिपादित इस भक्ति परम्परा को भी ऋषि ने नौ अंगों  में ही बांटा | जब इन नौ अंगों के सहारे मनुष्य प्रभु भक्ति में लीन होता है तो धीरे - धीरे उन्नति करता हुआ यह मनुष्य भी निश्चय ही देवताओं के समान बन जाता है |
भाग २. 
ऋषि की भक्ति की विशिष्टता  
              ऋषि दयानंद की प्रतिपादित प्रभु भक्ति की यह एक विशिष्टता है जो उन्हें संसार की अन्य की भक्ति पद्धतियों से अलग करती है और वह है कि उनकी बताई भक्ति पद्धति जो मानव जीवन के साधारण ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन के कार्यकलाप को उसके कार्यक्रम को हमारे सामने लाकर उपस्थित कर देती है | इस प्रकार इस में एक प्रकार की अत्यधिक सुन्दर योजना बनाई गई है |  जब प्रगति योजनाबद्ध विधि से की जाती है तो हमारे मनोरथ , हमारी अपेक्षाएं सम्पूर्ण रूप से सफलता को प्राप्त होते हैं | महर्षि की बताई भक्ति की पद्धति से यह परिणाम मिलना तो बिलकुल ही स्पष्ट है | 
ऋषि की भक्ति पद्धति को संध्या का नाम दिया गया है 
            स्वामी जी की भक्ति पद्धति के दर्शन करने हों तो हमें संध्या के मन्त्रों को देखना होता है , इस में ही भक्ति सम्बन्धी ऋषि की कार्य योजना के दर्शन होते हैं | ऋषि की निर्देशित संध्या पद्धति उनका कोई नया आविष्कार नहीं है | जब हम अपने इतिहास पुरुषों विशेष रूप से श्री राम और माता सीता जी के जीवन का बाल्मीकि कृत रामायण में दर्शन करते है तो हम पाते हैं कि रामायण के यह दोनों पात्र नित्यप्रति सायं व प्रात: संध्या किया करते थे | यह दर्शन मह्रिषी बाल्मीकि ने अनेक अवसरों पर रामायण में करवाए हैं | स्वामी जी ने प्राचीन ऋषियों की बताई उसी भक्ति पद्धति को ही पुन: जीवित किया है |
संध्या के मन्त्रों का चुनाव 
             संध्या काल में भक्ति का नाम संध्या दिया गया है और इसके लिए चुने गए मन्त्रों को भी एक अत्यंत ही सुन्दर क्रम दिया गया है | इस सुन्दर मन्त्र संयोजन से ही ऋषि की प्रज्ञा पूर्ण प्रतिभा के भी हमें दर्शन होते हैं | इस प्रतिभा के कारण ऋषि एक महान् मन्त्र संयोजक सिद्ध होते हैं | यदि महर्षि की मानव जीवन के प्रति विशाल दृष्टि के दर्शन करने हों तो संध्या के शब्द संयोजन में देखो | इससे ही इस बात का ज्ञान होता है कि ऋषि परमपिता परब्रह्म के ध्यान अथवा उसकी प्रार्थना और उपासना का ऋषि क्या अर्थ समझते थे | इस सब की समझ संध्या के मन्त्रों के भावों को जब हम समझते हैं तो यह सब स्पष्ट हो जाता है | आओ संध्या की विभिन्न क्रियाओं के द्वारा हम इसे समझने का यत्न करें |      
शिखा बंधन 
             संध्या के आरम्भ से पूर्व की जाने वाली क्रिया का नाम है शिखा बंधन | यह क्रिया गायत्री मन्त्र के गायन के पश्चात् शिखा को बाँध कर पूर्ण की जाती है | इस बंधन का उद्देश्य केवल सिर के अन्दर जो बिखरी हुई शक्तियां अथवा वृत्तियाँ कहें , उनको बाँध देना किन्तु यह केवल एक अलंकारिक परिभाषा है | इस का वास्तविक भाव यह है कि संध्या में प्रवृत होते समय जिस प्रकार शिखा बंधन से हमने अपनी बिखरी हुई वृत्तियों को बांधने का प्रयास किया है , उस प्रकार ही संध्या का पवित्र कर्म करने के लिए हमें सम्पूर्ण मन से प्रवृत होना चाहिए | जब कोई काम ढीले ढाले मन से किया जाता है विशेष रूप से प्रभु भक्ति जब ढीले ढाले मन से की जाती है तो उसमें कभी भी शक्ति नहीं आती | यह ध्यान भटकाने से प्रभु का मिल पाना संभव ही नहीं है | इसके लिए एकाग्र होना आवश्यक है | जब यह भक्ति श्रद्धा भाव से की जाती है तो सोने पर सुहागा हो जाता है | इस के लिये किये गए कर्म का रुपान्तर्ण करना होता है | कर्म का यह रुपान्तर्ण उसे दिव्य बना देने की शक्ति श्रद्धा में ही होती है | इसलिए प्रभु भक्ति अर्थात् संध्या के लिए श्रद्धा का होना अत्यंत आवश्यक है |


                           


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