वैदिक मान्यताएं
प्रकृति
44. ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई ?
प्रकृति का प्रयोजन
कई जिज्ञासु प्रश्न करते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् है, सर्वव्यापक है, आनन्द स्वरूप है, उसकी कोई इच्छा नहीं, न ही उसे किसी चीज़ की आवश्यकता है, तो फिर उसने सृष्टि रचना का सिर दर्द क्यों मोल लिया ?
इसके उत्तर में हम आपसे एक प्रश्न Counter Question पूछते हैं । माता-पिता अपने बच्चों के पालन-पोषण में, शिक्षण में, उनकी सुख-सुविधाओं के लिए इतना परिश्रम क्यों करते हैं?
इसलिए कि वे उन्हें प्यार करते हैं और यह उनका दायित्व भी है। यदि कोई माता-पिता किसी बच्चे को पैदा कर के, सड़क पर फ़ैक दें, तो वे न केवल निर्दयी कहलाएंगे, उन पर अपराध Criminal offence का मुकदमा भी चलाया जा सकता है।
परमदयालु परमात्मा अपने बच्चों के प्रति इतना निर्दयी कैसे हो सकता है ? ऋग्वेद 8.98.1 का मंत्र है:
त्वं हि न: पिता वसो त्वं माता श्रतक्रतो बभूवथ।
अर्थात् हे सर्वशक्तिमान् सृष्टिकर्ता! तुम ही हमारे पिता हो, तुम ही हमारी माता हो। अतः, ईंश्वर ने हम पुत्रों के लिए यह सृष्टि बनाई है।
हां, जहां तक सिर-दर्द का सवाल है, उस सर्वशक्तिमान् परमात्मा के लिए सृष्टि रचना कार्य एक खेल के समान है। यह सृष्टि उससे इस प्रकार प्रकट होती है जैसे हमारे शरीर से श्वास स्वत: निकलता है, जिसके लिए हमें कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
दूसरा कारण यह है कि तीन अनादि सत्ताएं हैं : ईश्वर, जीव और प्रकृति। ईश्वर सर्व-अधिष्ठाता Matrix होने से , जीव और प्रकृति उस में पड़े हुए हैं। जीव की तीन स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं :
ज्ञातृत्व जानने की इच्छा/Knowing, कर्तृत्व कार्य करने की इच्छा/ Willing और भोक्तृत्व सुख-दुख का भोग/Feeling। ये प्रवृत्तियां तभी सार्थक/ क्रियान्वित हो सकती हैं यदि सृष्टि की रचना हो।
छान्दोग्य उपनिषद् 8.12.1 का कथन है: अशरीरं वाव सान्तं न प्रियाप्रिये स्पृशत:।
अर्थात् शरीर - रहित आत्मा को सुख-दुख स्पर्श नहीं कर सकते। अतः सृष्टि रचना कर के , जीवों को शरीर प्रदान करना अनिवार्य है अन्यथा जीव सदा-सदा के लिए निष्क्रिय पड़े रहेंगे।
तीसरा कारण यह है कि हर वस्तु किसी न किसी प्रयोग के लिए होती है। उसकी उपादेयता Utility होती है। अन्यथा उसका अस्तित्व व्यर्थ है। उदाहरणार्थ, ईश्वर सर्वज्ञ हैं। उसे अपने ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं। यदि उसका प्रयोग सृष्टि रचना में न किया जाए और वेद ज्ञान के रूप में उसे व्यक्त न किया जाए, वह सर्वज्ञता व्यर्थ है, न होने के बराबर है।
तथा हि, ईश्वर दयालु Kind/ रहमाने रहीम है। उसकी दया क्या उसके अपने लिए है ? जब तक उस दया का इज़हार , उस दया की बौछार किसी पर न की जाए, उसका दयालु होना निरर्थक है। इसलिए परमात्मा ने सृष्टि रचना करके, हमें हवा, पानी रोशनी दे कर, हमारे लिए खाद्य सामग्री की व्यवस्था कर के ; जैसे बच्चे के पैदा होने से पूर्व, मां के दूध की व्यवस्था करके, अपनी दया वृष्टि की है।
इसी प्रकार, किसी ख़ान में सोना या हीरा दबा पड़ा है। जब तक उसे वहां से निकाल कर, उसे संवार कर, कोई आभूषण न बना लिया जाए, उसका होना, न होने के बराबर है, व्यर्थ है।
प्रकृति का प्रयोजन
प्रकृति का प्रयोजन जीव द्वारा इसका भोग है । इसे प्रकृति का परार्थ कहते हैं अर्थात् अन्य के अर्थ के लिये है । सांख्यदर्शन 6.40 का कथन है:
अनुपभोगेsपिपुमर्थं सृष्टिः प्रधानस्योष्ट्रकुङ्कुमवहनवत् ।
अर्थात् ऊँट के द्वारा केसर का बोझा ले जाने के समान प्रकृति अपना उपभोग न करने पर भी पुरुष के लिये सृष्टि की उत्पत्ति करती है ।
इस विषय में योगदर्शन 2.18 का भी कथन है:
भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ।
अर्थात् प्रकृति पुरुष के भोग और अपवर्ग मोक्ष के लिये प्रकट हुई है ।
आत्मा शरीर के बिना कर्म कर नहीं सकता और न ही पदार्थों का भोग कर सकता है । इसके लिये जीव को प्रकृति का सहारा लेना पड़ता है । शरीर प्रकृति का प्रतिनिधि है और शरीर में अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार एक उपकरण है जिस के माध्यम से आत्मा कर्म करता है तथा जो प्रकृति एवं जीव में एक सेतु का कार्य करता है । अन्धे और लंगड़े के सहयोग के समान, इन दोनों के सम्बन्ध से जीव के भोग और अपवर्ग का निर्वाह होता है ।
गीता में प्रकृति-पुरुष संयोग के विषय पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है :
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।।
-- गीता 13.20
अर्थात् कार्य देह और करण देह के उपकरण-इन्द्रियाँ आदि की रचना करने में प्रकृति हेतु कही गयी है । सुख-दुःख के भोग का हेतु पुरुष कहा गया है । अर्थात् पुरुष जीव भोक्ता है।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुक्ते प्रकृतिजान् गुणान् ।
कारणं गुणसङ्गोsस्य सदसद्योनिजन्मसु ।।
-- गीता 13-21
अर्थात् जीव प्रकृति में स्थित रहकर प्रकृति से उत्पन्न गुणों का भोग करता है । इन गुणों से प्रभावित होकर जीव अच्छी या बुरी योनियों में जन्म लेता है ।
जीव प्रकृति के संयोग से अर्थात् प्रकृतिजनित चित्त एवं अहंकार के प्रभाव से अच्छे या बुरे कर्म करता है और सुख-दुःख का भोग करता है एवं अच्छी बुरी योनियों में बार-बार जन्म लेता है । यदि जीव चित्त को साध कर, अहंकार को नियन्त्रित कर, इस प्रकार कर्म करे कि प्रकृति के गुणों से प्रभावित न हो अर्थात् इस प्रकार जीवन निर्वाह करे जैसे कमल पानी में रहकर भी पानी से गीला नहीं होता, तो जीव कर्मबन्धन में नहीं फंसता ।
तब मनुष्य प्रकृति का परमार्थ के लिये उपयोग करता है । यही अपवर्ग के लिये प्रकृति का प्रयोग है । सांसारिक मनुष्य प्रकृति का भोग करते हैं । कुछ अध्यात्मपुरुष प्रकृति के भोग को हेय समझकर, इसे अपवर्ग मोक्ष के लिये प्रयोग करते हैं और इससे विमुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं जिसका विधान योगदर्शन में किया गया है ।
प्रकृति-पुरुष संयोग कर्मबन्धन, पुनर्जन्म एवं मोक्ष से सम्बन्धित है । अतः अगामी कड़ियों में, इन विषयों का विस्तार से वर्णन करेंगे।
Its English version is available on our Page:
The Vedic Trinity
Prakriti Nature
43) Why did God create the Universe?
Role of Nature
0 टिप्पणियाँ