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ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


श्लोक : एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
 अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥


अनुवाद : हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है
 ॥16॥


श्लोक : ( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता ) यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
 आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥


अनुवाद : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है
 ॥17॥



श्लोक : संजय उवाच: नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
 न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥


अनुवाद : उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता
 ॥18॥


श्लोक : तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
 असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥


अनुवाद : इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है
 ॥19॥


श्लोक : कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
 लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥


अनुवाद : जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है
 ॥20॥


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