फ्यूचर लाइन टाईम्स
मुझे नहीं पता कि रंजन गोगोई वास्तव में किस विचारधारा से संबंध रखते हैं।देश के मुख्य न्यायाधीश बनने से कुछ माह पूर्व एक दोपहर वे सुप्रीम कोर्ट से बाहर आए। उनके साथ कुछ और न्यायाधीश भी थे। उन्होंने संवाददाता सम्मेलन किया और समवेत स्वर में सुप्रीम कोर्ट के चाल-चलन पर आरोप लगाये। उनके निशाने पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा थे जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता का अपहरण करने का दोषी ठहराया गया। ऐसा कह सुनकर ये न्यायमूर्ति सुप्रीम कोर्ट के भीतर चले गए।उस समय इन न्यायाधीशों के इर्द-गिर्द कुछ वामपंथी विचारधारा के लोग देखे गए। बाद में रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त हुए। उन्होंने कई ऐतिहासिक फैसले दिए। उनमें से एक अयोध्या में राम मंदिर बनाने के पक्ष में दिया गया फैसला भी है।आज रंजन गोगोई को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा का सदस्य नामित किया गया है। क्या सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में इस प्रकार का संवाददाता सम्मेलन करना और उस समय वामपंथी समझे जाने वाले लोगों की उपस्थिति एक सोची-समझी और लंबी रणनीति थी? रंजन गोगोई की नियुक्ति बेशक वरिष्ठता के क्रम में हुई परंतु नियोक्ता अर्थात सरकार को व्यवहारिक आधार पर वरिष्ठता को नजरंदाज करने का अधिकार है। तो फिर एक प्रकार से एक दिन अपने मुख्य न्यायाधीश और अप्रत्यक्ष रूप से सरकार को सरेआम कठघरे में खड़ा करने वाले न्यायाधीश को सुप्रीम कोर्ट का मुखिया नियुक्त करने के पीछे क्या कोई खास मकसद था? क्या रंजन गोगोई को राज्यसभा में नामित कर सरकार ने कोई अहसान चुकाया है?ये सब सवाल अब जवाब मांगेंगे। परंतु बड़ा सवाल यह है कि देश के मुख्य न्यायाधीश के पद को वरण करने वाले और राममंदिर जैसे राष्ट्रीय मामले में स्पष्ट निर्णय देकर इतिहास में नाम दर्ज कराने वाले आदमी को संसद सदस्य जैसे तुच्छ पद का लोभ क्यों रहा? मेरे बेटे ने कहा, 'शक्तिशाली रहे लोगों की शक्तिशाली रहने की इच्छा कभी शांत नहीं होती।
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