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श्लोक : अर्जुन उवाच

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
 इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥


अनुवाद : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं
 ॥4॥


श्लोक : गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
 ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
 हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
 भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌॥


अनुवाद : इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा
 ॥5॥


श्लोक : न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
 यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
 यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
 स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥


अनुवाद : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं
 ॥6॥


श्लोक : कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
 पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
 यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
 शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌॥


अनुवाद : इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए
 ॥7॥


श्लोक : न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
 द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌।
 अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
 राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌॥


अनुवाद : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके
 ॥8।।


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