फ्यूचर लाइन टाईम्स
खबर है कि सर्वोच्च भाजपा नेता स्वयं शिक्षा नीति को परखेंगे। क्या इस में ‘नीति’ भी परखी जाएगी? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि पाँच महीने पहले देश और सभी राज्यों के सर्वोपरि शिक्षा अधिकारियों एवं तत्विषयक जिम्मेदार नेताओं का सम्मेलन हुआ था। उस में अनेक कुलपति, विविध शैक्षिक संस्थानों के प्रमुख तथा आमंत्रित विद्वान भी थे। सैकड़ों जिम्मेदार लोगों का यह सम्मेलन शिक्षा नीति पर ही केंद्रित था।
उस में विमर्श के लिए जो दस्तावेज सब को दिया गया था, उसकी सभी वक्ताओं ने प्रशंसा की। सम्मेलन का संचालन एक सर्वोच्च शिक्षा अधिकारी कर रहे थे। जब कार्यक्रम समाप्ति पर आया तो उन्होंने औपचारिक रूप से पूछ लिया कि क्या और किसी को कुछ कहना है? तब देश के जाने-माने विद्वान, जेएनयू के पूर्व-रेक्टर प्रो. कपिल कपूर ने हाथ उठाया। जब उन्हें अपनी बात कहने की अनुमति मिली, तो उन्होंने केवल एक प्रश्न पूछा: ‘‘सभा में उपस्थित गणमाण्य जनों से मैं एक बात जानना चाहता हूँ कि इस मोटे दस्तावेज में 'शिक्षा-नीति' कहाँ पर लिखी है?’’ उपस्थित तमाम लोग झेंप गए। किसी को उत्तर न सूझा! तब प्रो. कपूर ने संक्षेप में दो-चार बातें रखीं। वही विचारणीय है।
प्रथम, 'नीति' का अर्थ होता है ‘कुछ निश्चित सिद्धांतों पर बनी कोई कार्य-योजना’। यह तभी बनेगी जब पहले चालू नीति की समीक्षा करके उस की कमियाँ रेखांकित करें। पर यहाँ तो मान लिया गया है कि चालू नीति अच्छी है; केवल उस में कुछ घटाने-बढ़ाने की जरूरत है। दूसरे, उस दस्तावेज में शिक्षा के लिए कहीं कोई 'उद्देश्य' अंकित ही नहीं है। वह बिना किसी दृष्टिकोण, आकस्मिक रूप से चालू व्यवस्था के विविध पहलुओं की चर्चा शुरू कर देता है - संस्थाएं, नियम-कायदे, कर्मचारीगण, प्रशिक्षण, मूल्याकंन, शोध, शिक्षा का अधिकार, पाठ्यचर्या, स्कूल प्रशासन, प्रवेश परीक्षाएं, शिक्षक-योग्यता परीक्षाएं, आदि। जबकि यह सब तो उस नीति से निःसृत होना था, जिसे लागू करने हेतु ऐसे सरंजाम बनते हैं।
चालू नीति, ‘अंग्रेजी शिक्षा कानून-1835’ मात्र एक पन्ने का दस्तावेज था। वह लॉर्ड विलियम बेंटिक के हस्ताक्षर से लागू हुआ था। उस नीति में चार सरल बिन्दु थे : (1) ऐसे भारतीय तैयार करना जो देखने में भारतीय किन्तु मिजाज, विचार, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज हों। (2) इस के लिए शिक्षा मातृ-भाषा में नहीं, बल्कि अंग्रेजी में दी जाएगी। (3) शिक्षा सामग्री यूरोपियन होगी। (4) उस में दिए जाने वाले पाठ पश्चिमी होंगे तथा शासन द्वारा देशी पाठ्य-सामग्रियों का प्रकाशन प्रसार अविलंब बंद कर दिया जाएगा।
इन्हीं चार बिन्दुओं के लागू होने से यहाँ तीन E का आपसी गठबंधन – इंग्लिश + एजुकेशन + इम्प्लॉयमेंट – बना जिस से आज भी देश हानि उठा रहा है। इसे तोड़ना जरूरी है। जिस किसी नौकरी या प्रतियोगी परीक्षा में मात्र अंग्रेजी में पर्चे रहते हैं उन सब में भारतीय भाषाओं का विकल्प जोड़ा जाना चाहिए।
बहरहाल, 185 वर्ष से चल रही उस नीति के फलस्वरूप हमारी अपनी ही संस्कृति से दूरी होती गई और हम दिमागी गुलाम हो गए। चूँकि स्वतंत्र भारत में इस मोटी-सी बुनियादी बात पर नहीं सोचा गया, इसीलिए जितने भी नीति-दस्तावेज बने वे संतोषजनक फल न दे सके। वे कुछ ‘सुधार’ मात्र करते रहे, और नीति वही मैकॉले वाली चलती रही। जबकि जरूरत नीति-परिवर्तन की थी, ताकि भारत का मस्तिष्क स्वतंत्र होता। इस का सरल उपाय है, उन चारों बिन्दुओं को पलट देना। वैसा करते ही हमारी जनता में असीम उत्साह का संचार होगा और देश की लाखों अवरुद्ध प्रतिभाओं के सालाना खिलने का मार्ग खुलेगा।
चालू शिक्षा में मूलभत गड़बड़ी इस से भी दिखती है कि यहाँ पिछले कई दशकों से बार-बार शिक्षा आयोग, समितियाँ आदि बनती रहीं। उनके प्रयास विफल रहे, वरना एक के बाद दूसरी समिति बनाने की जरुरत न होती। सो, आने वाले वर्षों में फिर कोई नई शिक्षा समिति बनने की बात होगी। कारण यही है कि किसी आयोग/समिति ने असली समस्या का सामना नहीं किया। जरूरी मूलभूत परिवर्त्तन से बचते रहे और जहाँ तहाँ कुछ काट-छाँट कर संतुष्ट रहे। यह प्रश्न कि ‘शिक्षा व्यवस्था में समस्या क्या है?’ और ‘क्या किया जाना चाहिए?’ कभी गंभीरता से उठाया ही नहीं गया।
प्रो. कपूर के शब्दों में, "हमारी चालू शिक्षा व्यवस्था न तो लोकतांत्रिक, न संघीय, न स्वभाषी और न ही भारतीय है।" यह इस की मूल गड़बड़ी है। गत 185 वर्ष से चल रही इस शिक्षा ने भारत को ‘दो राष्ट्रों’ में बाँट दिया। दस प्रतिशत लोग एक तरफ जो अंग्रेजी जानते हैं, शेष नब्बे प्रतिशत जो अंग्रेजी नहीं जानते। इस ने भारतीय भाषाओं को अपने व्यवहार क्षेत्रों से क्रमशः विस्थापित कर दिया। समृद्ध भारतीय भाषाओं की कीमत पर अंग्रेजी को अनुपातहीन उच्च-प्रतिष्ठा दे दी। इस ने ऊपर बढ़ने की अनुचित सामाजिक विधि बनाई, जो अस्वास्थ्यकर प्रतियोगिता को बढ़ावा देकर तनाव और हताशा फैलाती है। इस ने अनेक ज्ञान-विषयों में भारत की अतुलनीय ज्ञान-परंपरा की महान पुस्तकों को शिक्षा से बाहर कर दिया। इस ने भारतीय युवाओं को अस्मिताहीन तथा अपनी संस्कृति से विमुख बनाया, जो या तो अज्ञानी या फिर अपने और अपनी विरासत के प्रति आत्म-ग्लानि से भरे हैं। अंततः सब से हानिकर बात यह हुई कि इस ने भारतीय मस्तिष्क को गुलाम और देश को दूसरे से लेने वाली ‘कटोरा’ संस्कृति बना दिया। जबकि पहले भारत दुनिया को देने वाली संस्कृति होता था! यह सभी स्थितियाँ हमारी सभ्यता की नींव को काट रही हैं। इसीलिए बार-बार शिक्षा का प्रश्न कष्टकर रूप से उभरता रहता है।
उपर्युक्त बातों के मद्देनजर समाधान का मार्ग स्पष्ट है कि हम अपनी शिक्षा को लोकतांत्रिक, संघीय, स्वभाषी और भारतीय बनाएं। 1835 ई. वाली नीति को पलटते हुए, अपनी शिक्षा का उद्देश्य ऐसे भारतीय बनाना घोषित करें ‘‘जो शरीर से ही नहीं बल्कि विचार, मिजाज, नैतिकता और बुद्धि में भी भारतीय हों।’’ ऐसा करने का मूल सूत्र एक है, जिसे पकड़ कर गुत्थी सुलझ सकती हैं। वह कि भारत के सभी राज्यों में शिक्षा का माध्यम प्राथमिक से लेकर सर्वोच्च शोध स्तर तक राज्य की अपनी भाषा ही हो।
इस से ‘पैदा होने वाली समस्याएं’, जैसा कि 185 वर्ष पहले बनी शिक्षा नीति में भी नोट किया गया था, सरकार के शिक्षा विभाग देखेंगे और उपाय करेंगे। इन बिन्दुओं पर आधारित शिक्षा नीति का देश की आम जनता में निस्संदेह भारी स्वागत होगा। आपसी भाषाई विवाद खत्म होंगे, अपने साहित्य से लोगों का परिचय और लगाव बढ़ेगा। साथ ही, हजारों-हजार प्रतिभाशाली युवाओं के लिए शिक्षक, लेखक, अनुवादक, प्रकाशक और शोध-कर्म से जुड़े हुए रुचिकर, ज्ञान-वर्द्धक और रचनात्मक रोजगार के अतिरिक्त अवसर खुलेंगे। भारत की दर्जन भर महत्वपूर्ण भाषाओं में सैकड़ों नई संस्थाओं का विकास होगा। इन सब के संयुक्त परिणाम एक-दो दशक में ही देखे जा सकेंगे।
इस से अधिक निर्विवाद, रचनात्मक और मूलभूत कदम कोई और नहीं हो सकता। यह सब कोई अव्यवहारिक, कल्पना की उड़ान नहीं है। सत्तर वर्ष पहले दक्षिण कोरिया और जापान ने अपनी भाषा को शिक्षा की बुनियाद बनाकर ऐसे ही कदम उठाए थे। भारत में इस कार्य में उठने वाली समस्याएं और जरूरतों की पूर्ति विभिन्न राज्यों के शिक्षा विभाग और संस्थान कुछ ही वर्षों में कर लेंगे। फिर कोई बड़ी उलझन नहीं बचेगी। उन समस्याओं का उल्लेख और संभावित उपाय ‘भारत के लिए समेकित भाषा नीति’ की रिपोर्ट (2016) में विस्तार से दिए गए हैं। यह मानव संसाधन मंत्रालय के पास विचाराधीन है, जिसे जनता के बीच लाकर देश-व्यापी विमर्श होना चाहिए।
प्रो. कपूर की बातें इसलिए भी ध्यान देने योग्य हैं कि वे भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा भाषा विशेषज्ञ समिति (2014-16) के अध्यक्ष रहे हैं, जिस ने चार वर्ष पहले अपनी उपर्युक्त रिपोर्ट दी थी। यदि उन जैसे विशिष्ट ज्ञानियों की भी उपेक्षा हो तो प्रश्न उठना स्वभाविक है। आशा है हमारे सर्वोच्च नेता इस पर भी विचार करेंगे।
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