फ्यूचर लाइन टाईम्स
रजनीश ओशो मत खण्डन
ओशो वैदिक धर्म और मत - सम्प्रदाय विषय को जानने में अक्षम रहा
ओशो सारी बुराइयों का जड़ धर्म , संस्कृति और ऋषियों को मानता है , और सेक्स की शक्ति को ही परमात्मा की शक्ति मानता है ।
ओशो कहता है ,
" यह जो मनुष्य जाति इतनी कामुक दिखाई पड़ती है , इसके पीछे धर्म और संस्कृति का बुनियादी हाथ है । इसके पीछे बुरे लोगों की नही , सज्जनों और सन्तो का हाथ है । और जब तक मनुष्य जाति सज्जनों और सन्तो के अनाचार से मुक्त नही होगी तब तक प्रेम के विकास की कोई संभावना नही है । परमात्मा की सृजन ऊर्जा 3 पृष्ठ 6
समीक्षा - ओशो ने वैदिक ऋषियों और आर्ष ग्रन्थों को अध्ययन के बिना ही गलत ठहराया दिया है ।
वैदिक ग्रन्थों और ऋषियों के अनुसार धर्म के निम्न लक्षण है ,
*धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। मनुस्मृति ६.९२
अर्थ – धृति धैर्य , क्षमा अपना उपकार करने वाले का भी उपकार करना , दम हमेशा संयम से धर्मं में लगे रहना , अस्तेय चोरी न करना , शौच भीतर और बाहर की पवित्रता , इन्द्रिय निग्रह इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना , धी सत्कर्मो से बुद्धि को बढ़ाना , विद्या यथार्थ ज्ञान लेना . सत्यम हमेशा सत्य का आचरण करना और अक्रोध क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना ।
अब कुछ प्रश्न उठते है , जिसपर बुद्धिजीवी विचार करे ।
1 क्या दया , क्षमा , पवित्रता , सत्य बोलना , अक्रोध आदि सद्गुण प्रेम और आनन्द में बाधक हो सकते है ?
2 जो सत्यभाषण और सदाचार करने वाले ऋषियों, सन्तो और मत - सम्प्रदाय के पाखंडियों मे अंतर न कर पावे उसे अज्ञानी समझ कर अनुकरण ही क्यो किया जाये ।
ओशो जीव , ईश्वर और प्रकृति की स्वतंत्रता और ईश्वर के निर्विकार और न्यायप्रिय गुणों के जानने में अक्षम रहा ।
ओशो कहता है ,
" धर्म ने मनुष्य जाति के ऊपर दुर्भाग्य की भांति छाया हुआ है , उस धर्म ने मनुष्य के जीवन से प्रेम के सारे द्वार बंद कर दिए है । परमात्मा की सृजन पृष्ठ 3
दस हज़ार वर्ष में संस्कृति के जो बीज बोए गए है , वह आदमी उसका फल है , और घृणा से भरा हुआ है । लेकिन उसी की दुहाई दिए चले जा रहे है ।" परमात्मा सृजन पृष्ठ 4
समीक्षा : - ऐसी बाते विद्वान के नही हो सकते क्योंकि सृष्टि आरम्भ में दयालु ईश्वर ने वेदो के रूप में ज्ञान दिया । ईश्वर मनुष्यो के कर्मो और व्यवहार में निरपेक्ष absolute रहता है ,ऐसा न होता तो ईश्वर में ही दोष आता । अतः ईश्वर मनुष्यो के कर्मो में उसको स्वतन्त्र रखता है , ऐसे निर्विकार ईश्वर केवल न्याय करता मनुष्य के कर्मों का , सृष्टि रचता इस प्रकार वह मनुष्यों के कार्यो में हस्तक्षेप नही करता ।
इस प्रकार ओशो साहब का कहना कि आज का इन्सान उस वृक्ष का फल है जो हज़ारो साल पहले बीज बोए गए , यह पूर्णरूपेण मिथ्या है । किसी फल आज के दोषयुक्त मनुष्य का परिणाम बीज परमेश्वर प्रदत्त व्यवस्था की गुणवत्ता न होकर अन्य वातावरणीय व्यवस्थाएं पानी , खाद ,किट पतंगों से बचाव सत्य - सद्गुणों के ग्रहण और असत्य - अवगुण अन्य दोषादि से मुक़्ति जैसे कारक जिम्मेदार है ।
अतः ओशो साहब का यह कहना कि सैकड़ो वर्ष पूर्व परमात्मा और ऋषियों प्रदत्त ज्ञान ही घृणा का कारण है तो यह बात पूर्वाग्रह और तर्कहीन दिखती है ।
ओशो साहब का यह भी कहना मिथ्या है कि सज्जन और सन्त धर्म के की दुहाई देते है ,
दुहाई तो मत वाले लोग देते है , जो सत्य और तर्क के आभाव में दिन रात रमते है , चेला - चेली बनाते है ।
जो जीवन को परोपकार और मानवजाति के हित में स्वयम को होम कर देते है , जो स्वयं को अनादि जीव की समझते है , वे धर्म की दुहाई क्यो देते भला ? जबकि
धर्म तो श्रेष्ठ गुणों को धारण करने का नाम है ।
प्रेम और काम विषय की गूढ़ता को जानने में असफल रहेे ओशो
ओशो कहता है ,
"सेक्स की शक्ति ही , काम की शक्ति ही प्रेम बनती है । काम से लड़ना नही काम से मैत्री स्थापित करना करना है , और काम की धारा को उचाईयो तक ले जाना है ।
काम का विरोध करना ही कामुकता का कारण है ।"
" जब तक काम के निसर्ग के परिपूर्ण आत्मा से स्वीकृति नही मिल जाती है , तब तक कोई किसी को प्रेम नही कर सकता । मैं
आप से कहना चाहता हूँ , कि काम दिव्य है , डिवाइन है ।
सेक्स की शक्ति ही परमात्मा की शक्ति है । ईश्वर की शक्ति है ।
" मनुष्य की सारी संस्कृतियों ने सेक्स का , काम का वासना का विरोध किया है । इस विरोध ने मनुष्य के भीतर प्रेम के जन्म की संभावना तोड़ दी है नष्ट कर दी है , इस निषेध ने ... क्योकि सच्चाई ये है कि प्रेम की सारी यात्रा का प्राथमिक बिंदु काम है ।
समीक्षा - वैदिक ग्रन्थों के अनुसार ,
मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
काम’ का मतलब सेक्स नही है , जैसा कि ओशो साहब सोचते है । काम का अर्थ है ,अपनी सम्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करना। ‘धर्म’ है- वेद के अनुसार आचरण करना। ‘अर्थ’ है- वेदानुसार आचरण करके
धनादि प्राप्त करना यानि ईमानदारी और मेहनत से धन कमाना।’ और उससे खाना-पीना, रोटी-कपड़ा, मकान आदि का प्रबंध करना ‘काम’ है। जब धर्म, अर्थ और काम, ये तीनों चीजें सिद्ध हो जायेंगी, तब उसके बाद ही ‘मोक्ष’ मिलेगा। जो व्यक्ति ‘धर्म’ का आचरण नहीं करता, वो ‘अर्थ’ नहीं प्राप्त कर सकता, वो काम की पूर्ति भी नहीं कर सकता और उसको ‘मोक्ष’ भी नहीं मिल पायेगा। जो ये तीन ठीक कर लेगा, उसका मोक्ष भी हो जायेगा।
ओशो साहब के वचनों से यह बात तो सिद्ध है कि उन्होंने वेद , उपनिषद सहित अन्य आर्ष ग्रन्थों का तिनका भी अध्ययन न किया जीवनपर्यंत । केवल चेला - चेली बनाने और कहानियों में उलझाने के सिवाय उन्होंने कुछ भी न किया , इसमें वह काफी हद तक सफल भी हुए ।
वेदो ने काम का कभी विरोध नही किया क्योकि काम का सन्दर्भ प्रजा बढाने के निमित्त व्यवस्था के रूप में भी स्पष्ट आदेश भी वेदो ने किया है ,
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि॥
—ऋ॰ मं॰ 10। सू॰ 85। मं॰ 45॥
हे मीढ्व इन्द्र वीर्य सेचन में समर्थ ऐश्वर्ययुक्त पुरुष! तू इस विवाहित स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ सन्तान और सौभाग्ययुक्त कर। इस विवाहित स्त्री में दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान! हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष वा नियुक्त पुरुषों से दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ। इस वेद की आज्ञा से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्णस्थ स्त्री और पुरुष दश-दश सन्तान से अधिक उत्पन्न न करें। क्योंकि अधिक करने से सन्तान निर्बल, निर्बुद्धि, अल्पायु होते हैं और स्त्री तथा पुरुष भी निर्बल, अल्पायु और रोगी होकर वृद्धावस्था में बहुत से दुःख पाते हैं।
वैदिक व्यवस्था में काम प्रजा बढाने के सन्दर्भ में उचित है । लम्पटता , वासना , व्यभिचार के पशु प्रवृत्ति से दूर रहने का आदेश दिया है ।
पुरुषार्थ का सम्बन्ध चार आश्रमों से है। प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम, दूसरा गार्हस्थ्य आश्रम तीसरा वानप्रस्थ एवं चौथा सन्यास मोक्ष का अधिष्ठान है। इस तरह सदाचार और सत्यभाषण आदि सदगुणों वाली यह जीवन यात्रा एक बहते हुए नदी के समान है , जिससे इस व्यवस्था में दोष नही आता ।
ओशो कहता है कि सेक्स काम को रोकना ही सेंसुअलिटी कामवासना का कारण है ।
जबकि कामाग्नि कभी न बुझने वाली आग है । अतः इस वासना से बद्ध होकर पुनः कैसी स्वतंत्रता हो सकती है भला ?
ऐसे ओशो के विचारों में भी बड़े विरोधाभास दिखते एक तरफ तो वह सेक्स के निरोध को बन्धन कहता , और काम को परमेश्वर कहके स्वतंत्र यौनाचार के बंधन में लोगो को बांधने का उपदेश भी करता ??
क्या एक बार खूब मिष्ठान आदि खा लेने से पुनः मिष्ठान खाने की इच्छा जागृत नही होती ?
अतः योगियों के लिए यह आवश्यक है कि वह चित्त की इन वृत्तियों का निरोध करे ,वेद सम्मत अष्टांग पतजंलि सोपान के माध्यम से क्रमशः 8 सोपानों से होता हुआ योगी कैवल्य को प्राप्त हो ।
ऋषि पतंजलि ने कहा
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः अर्थात
चित्त की वृत्तियो का निरोध रोकना को ही योग कहा जाता है ।
तदा द्रष्टुः स्वरूप्येअवस्थानम् ।।
जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है , अर्थात वह कैवल्य को प्राप्त हो जाता है ।
चित्त की वृत्तियां - अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष , अभिनिवेश ।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः॥1॥
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्॥2॥
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या॥3॥
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता॥4॥
सुखानुशयी रागः॥5॥ दुःखानुशयी द्वेषः॥6॥
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः॥7॥
-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 3।4।5।6।7।8।9॥
इस प्रकार परमेश्वर की उपासना करके, अविद्या आदि क्लेश तथा अधर्म्माचरण आदि दुष्ट गुणों को निवारण करके, शुद्ध विज्ञान और धर्मादि शुभ गुणों के आचरण से आत्मा की उन्नति करके, जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। अब इस विषय में प्रथम योगशास्त्र का प्रमाण लिखते हैं। पूर्व लिखी हुई चित्त की पांच वृत्तियों को यथावत् रोकने और मोक्ष के साधन में सब दिन प्रवृत्त रहने से, नीचे लिखे हुए पांच क्लेश नष्ट हो जाते हैं। वे क्लेश ये हैं-
अविद्या॰ एक अविद्या दूसरा अस्मिता तीसरा राग चौथा द्वेष और पांचवां अभिनिवेश॥1॥
अविद्याक्षेत्र॰ उन में से अस्मितादि चार क्लेशों और मिथ्याभाषणादि दोषों की माता अविद्या है, जो कि मूढ़ जीवों को अन्धकार में फंसा के जन्ममरणादि दुःखसागर में सदा डुबाती है। परन्तु जब विद्वान् और धर्मात्मा उपासकों की सत्यविद्या से अविद्या विच्छिन्न अर्थात् छिन्नभिन्न होके प्रसुप्ततनु नष्ट हो जाती है, तब वे जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं॥2॥
अविद्या के लक्षण ये हैं-अनित्या॰ अनित्य अर्थात् कार्य जो शरीर आदि स्थूल पदार्थ तथा लोकलोकान्तर में नित्यबुद्धि; तथा जो नित्य अर्थात् ईश्वर, जीव, जगत् का कारण, क्रिया क्रियावान्, गुण गुणी और धर्म धर्मी हैं, इन नित्य पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध है, इन में अनित्यबुद्धि का होना, यह अविद्या का प्रथम भाग है।
तथा अशुचि मल मूत्र आदि के समुदाय दुर्गन्धरूप मल से परिपूर्ण शरीर में पवित्रबुद्धि का करना तथा तलाब, बावरी, कुण्ड, कूंआ और नदी आदि में तीर्थ और पाप छुड़ाने की बुद्धि करना और उन का चरणामृत पीना; एकादशी आदि मिथ्या व्रतों में भूख प्यास आदि दुःखों का सहना; स्पर्श इन्द्रिय के भोग में अत्यन्त प्रीति करना इत्यादि अशुद्ध पदार्थों को शुद्ध मानना और सत्यविद्या, सत्यभाषण, धर्म, सत्सङ्ग, परमेश्वर की उपासना, जितेन्द्रियता, सर्वोपकार करना, सब से प्रेमभाव से वर्त्तना आदि शुद्धव्यवहार और पदार्थों में अपवित्र बुद्धि करना, यह अविद्या का दूसरा भाग है।
तथा दुःख में सुखबुद्धि अर्थात् विषयतृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि दुःखरूप व्यवहारों में सुख मिलने की आशा करना, जितेन्द्रियता, निष्काम, शम, सन्तोष, विवेक, प्रसन्नता, प्रेम, मित्रता आदि सुखरूप व्यवहारों में दुःखबुद्धि का करना, यह अविद्या का तीसरा भाग है।
इसी प्रकार अनात्मा में आत्मबुद्धि अर्थात् जड़ में चेतनभावना और चेतन में जड़भावना करना अविद्या का चतुर्थ भाग है। यह चार प्रकार की अविद्या संसार के अज्ञानी जीवों को बन्धन का हेतु होके उन को सदा नचाती रहती है। परन्तु विद्या अर्थात् पूर्वोक्त अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा में अनित्य, अपवित्रता, दुःख और अनात्मबुद्धि का होना तथा नित्य, शुचि, सुख और आत्मा में नित्य, पवित्रता, सुख और आत्मबुद्धि करना यह चार प्रकार की विद्या है। जब विद्या से अविद्या की निवृत्ति होती है, तब बन्धन से छूट के जीव मुक्ति को प्राप्त होता है॥3॥
दृग्दर्शन॰ दूसरा क्लेश अस्मिता कहाता है अर्थात् जीव और बुद्धि को मिले के समान देखना; अभिमान और अहङ्कार से अपने को बड़ा समझना इत्यादि व्यवहार को अस्मिता जानना। जब सम्यक् विज्ञान से अभिमान आदि के नाश होने से इस की निवृत्ति हो जाती है, तब गुणों के ग्रहण में रुचि होती है॥4॥
तीसरा सुखानु॰ राग, अर्थात् जो जो सुख संसार में साक्षात् भोगने में आते हैं, उन के संस्कार की स्मृति से जो तृष्णा के लोभसागर में बहना है इस का नाम राग है। जब ऐसा ज्ञान मनुष्य को होता है कि सब संयोग, वियोग, संयोगवियोगान्त हैं अर्थात् वियोग के अन्त में संयोग और संयोग के अन्त में वियोग तथा वृद्धि के अन्त में क्षय और क्षय के अन्त में वृद्धि होती है, तब इस की निवृत्ति हो जाती है॥5॥
दुःखानु॰ चौथा द्वेष कहाता है अर्थात् जिस अर्थ का पूर्व अनुभव किया गया हो उस पर और उसके साधनों पर सदा क्रोधबुद्धि होना। इस की निवृत्ति भी राग की निवृत्ति से ही होती है॥6॥
स्वरसवा॰ पांचवां अभिनिवेश क्लेश है, जो सब प्राणियों को नित्य आशा होती है कि हम सदैव शरीर के साथ बने रहें अर्थात् कभी मरें नहीं, सो पूर्व जन्म के अनुभव से होती है। और इस से पूर्व जन्म भी सिद्ध होता है। क्योंकि छोटे-छोटे कृमि चींटी आदि जीवों को भी मरण का भय बराबर बना रहता है। इसी से इस क्लेश को अभिनिवेश कहते हैं। जो कि विद्वान् मूर्ख तथा क्षुद्रजन्तुओं में भी बराबर दीख पड़ता है। इस क्लेश की निवृत्ति उस समय होगी कि जब जीव, परमेश्वर और प्रकृति अर्थात् जगत् के कारण को नित्य और कार्यद्रव्य के संयोग वियोग को अनित्य जान लेगा। इन क्लेशों की शान्ति से जीवों को मोक्षसुख की प्राप्ति होती है॥7॥
तदभावात्॰ अर्थात् जब अविद्यादि क्लेश दूर होके विद्यादि शुभ गुण प्राप्त होते हैं, तब जीव सब बन्धनों और दुःखों से छूट के मुक्ति को प्राप्त हो जाता है॥8॥
तद्वैराग्या॰ अर्थात् शोकरहित आदि सिद्धि से भी विरक्त होके सब क्लेशों और दोषों का बीज जो अविद्या है, उस के नाश करने के लिए यथावत् प्रयत्न करे, क्योंकि उस के नाश के विना मोक्ष कभी नहीं हो सकता॥9॥
तथा सत्त्वपुरुष॰ अर्थात् सत्त्व जो बुद्धि, पुरुष जो जीव, इन दोनों की शुद्धि से मुक्ति होती है, अन्यथा नहीं॥10॥
तदा विवेक॰ जब सब दोषों से अलग होके ज्ञान की ओर आत्मा झुकता है, तब कैवल्य मोक्ष धर्म के संस्कार से चित्त परिपूर्ण हो जाता है, तभी जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। क्योंकि जब तक बन्धन के कामों में जीव फंसता जाता है, तब तक उस को मुक्ति प्राप्त होना असम्भव है॥11॥
ओशो सयंम , अनुशासन आदि वैज्ञानिक व्यवस्थाओं को समझने में असफल रहा*
ओशो कहता है कि ,
"सयंमी व्यक्ति बड़े खतरनाक होते है , क्योकि उनके भीतर ज्वालामुखी उबल रहा है , ऊपर से वह सयम साधे हुए है । क्योकि उसके विश्राम का वक्त आएगा । चौबीस घण्टे में कभी तो उसे शिथिल होना ही पड़ेगा । उसी बीच उसके मन मे दुनिया भर के पाप खड़े हो जाएंगे । नरक सामने आ जायेगा ।*
समीक्षा - देखिये ओशो साहब साहब की लीला जब सदाचारी और योगी न बन पाए तो साइकोलॉजिस्ट बन गए ।
संयमी व्यक्ति के भीतर किसी भी वृत्ति की ज्वालामुखी उबलना असम्भव है क्योकि वह क्रमशः सोपानों से चढ़ते यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान ,समाधि है । वह एकदम से चित्त की वृत्ति नही कर लेते वह निरन्तर एकाग्रचित्त और शांत मन से निरन्तर अभ्यास करते है , ततपश्चात अगले सोपान की ओर बढ़ते है ।
पातंजलि सूत्र के अनुसार ,
*अभ्यास वैराग्याभ्याम तननिरोधः*
अर्थात चित्त की वृत्तियों का सर्वथा निरोध करने के लिए दो विधियां है , अभ्यास और वैराग्य ।।
इस तरह विभिन्न वृत्तियों को त्याग करते हुए वह अगले यौगिक सोपान पर चढ़ते है , और उस वृत्ति में पुनः नही रमते , जिस प्रकार मट्ठे को मथकर निकाला हुआ नवनीत पुनः मट्ठे में लाखों यत्नो के बाद भी नही मिल सकता ।
किसी विद्यालय में पढ़ने वाला छात्र विभिन्न विषयों में निपुणता हासिल करके ही अगले कक्षा को पहुचता , सफलता उपरांत वह अगली कक्षा से पुनः पूर्व की कक्षा में वापस नही आता ।
एक योगी इसी तरह ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ , सन्यास से होता हुआ योग के विभिन्न सोपानों से चढ़ता हुआ समाधि तक पहुचता है , उसका मानसिक विश्राम योग निद्रा कहा जाता है ।
जिस तरह से किसी शुभ कार्य के लिए उस स्थान विशेष की स्वक्षता अत्यंत आवश्यक है । उसी तरह मन से परमात्मा के ध्यान के लिए चित्त की वृत्तियों का निवारण अत्यंत आवश्यक है ।
प्रेम के उद्मगम को जानने मे असफल रहे ओशो
ओशो के अनुसार ,
प्रेम की यात्रा का जन्म गंगोत्री जहाँ से गंगा पैदा होगी , वह सेक्स है , वह काम है , उसके सब दुश्मन है , वह काम है । सारी संस्कृतियां और सारे धर्म , सारे गुरु और महात्मा, तो गंगोत्री पर ही चोट कर दिया वहाँ रोक दिया । पाप है , जहर है , काम अधम है । ये काम की शक्ति ही प्रेम में परिवर्तित होती है , और रूपांतरित होती है , प्रेम का जो विकास है , वह काम की शक्ति का रूपांतरण transformation है ।
समीक्षा - कामपिपासु ओशो का कहना है , की सेक्स ही प्रेम की गंगोत्री है , जहाँ से प्रेम का उद्द्भव होता है ।
अब यहा प्रश्न उठते है :-
अगर सेक्स ही प्रेम का उद्भव है , तो ये भोगयोनि में रमण कर रहे जीव क्यो नही परमानन्द पा लेते , क्यो नही स्वभावतः पशु भोग योनि प्राप्त जीव परमानन्द नही प्राप्त कर लेते । क्यो नही वह वासना से मुक़्ति पा लेते ?
परन्तु विद्वानो का कथन है कि ईश्वर ही आनन्द का स्रोत सृष्टि का रचयिता है , जो परमानन्दस्वरूप है ।
संसार के सुख और वैभव आदि भौतिक क्षणिक आनन्द देने वाले है , इस भौतिक सुख को प्राप्त करके परमानन्द की इच्छा करने वाला उस पतिंगे मानव की भांति है जो दीपक की लौ क्षणिक आनन्द को प्राप्त करने का असफल प्रयास करता है , जब तक जल कर खाक मृत्यु को प्राप्त नही हो जाता और तब तक उस भौतिक आनन्द के पीछे भागता रहता है । अतः सुख की प्राप्ति स्वेच्छाचार में नही ईश्वर प्राणी ध्यान में है । असली आनन्द तो वेदविहित सत्य ज्ञान , सत्कर्म और ईश्वरोपासना में है ।
ईश्वर ध्यान एक विज्ञान है परमानंद में रमकर आनन्द प्राप्त करने का । ईश्वरीय आनन्द शाश्वत सुख का अनुभव है । परमेश्वर ने ही वेद ज्ञान देकर मुक़्ति और आनन्द का मार्ग दिखाकर मानव मात्र पर दया दिखाया अगर ऐसा न होता तो वनादि स्थानों पर रहने वाले लोग क्यो नही ज्ञान अथवा आनन्द प्राप्त कर लेते ?
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