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फरवरी 28 जन्म-तिथि, कर्मक्षेत्र में प्राणार्पण करने वाले रमेश बाबू

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


रमेश बाबू एक युवा प्रचारक थे, जिन्होंने श्रीलंका में कार्य करते हुए एक दुर्घटना में अपना प्राण गंवा दिये। उनकी माता श्रीमती अम्बिका तथा पिता श्री नमः शिवाय पिल्लई नागरकोइल जिला कन्याकुमारी, तमिलनाडु के निवासी हैं। वहीं फरवरी 28, 1970 को रमेश बाबू का जन्म हुआ। 


उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद विद्युत उपकरणों का संचालन व मरम्मत सीखी और उसका डिप्लोमा आई.टी.आई. भी किया। संघ के प्रचारक बनने पर वे काफी समय तक तमिलनाडु में तहसील प्रचारक रहेे। 


उनकी योग्यता तथा नये क्षेत्रों में सम्पर्क कर शीघ्र काम फैलाने की सामर्थ्य देखकर उन्हें श्रीलंका भेजा गया। वे शांत भाव से काम करना पसंद करते थे। उन्हें चुनौतीपूर्ण काम करने में बहुत आनंद आता था, अतः उन्होंने सहर्ष इस कार्य को स्वीकार किया।


श्रीलंका की स्थिति बहुत कठिन थी। सब ओर लिट्टे का आतंक रहता था। ऐसे में शाखा चलाना कितना जटिल होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है; पर रमेश बाबू ने अपने मधुर स्वभाव तथा परिश्रमशीलता से काम की जड़ें जमा दीं। वे सादगी को पसंद करते थे, अतः मितव्ययी भी थे। 


प्रभावी वक्ता होने के कारण अपने विषय को ठीक से श्रोताओं के सामने रख पाते थे। उनके पांच साल के कार्यकाल में श्रीलंका में 50 नयी शाखाएं खड़ी हुईं। उन शाखाओं के कारण 15 कार्यकर्ता भारत में संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त करने आये। पांच प्रचारक और कई विस्तारक बने। 


वहां काम करने वाले कार्यकर्ता को संघ के साथ ही अनेक अन्य कामों में भी समय लगाना पड़ता है। संघ के साथ ही राष्ट्र सेविका समिति की भी अनेक महिला कार्यकर्ता भारत में प्रशिक्षण के लिए आयीं। समिति की कई विस्तारिका भी बनीं। विश्व संघ शिविर में भी अनेक कार्यकर्ता आये। 


संघ, राष्ट्र सेविका समिति या विश्व हिन्दू परिषद आदि के कार्यकर्ता भारत से जब प्रवास पर आते थे, तो वे उनके साथ जाकर उनके कार्यक्रमों को सफल बनाते थे। इस प्रकार उन्होंने हर क्षेत्र में कार्य के नये आयाम स्थापित किये।


सुनामी आपदा का कहर दक्षिण भारत के साथ ही श्रीलंका पर भी टूटा था। उस समय उनके साथ सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने ग्रामीण क्षेत्रों में सहायता सामग्री एकत्र कर बांटी। इसके बाद अनेक पीड़ितों को मकान बनाकर भी दिये गये। 


यह सब तब था, जबकि युद्धग्रस्त श्रीलंका में कोई कार्यालय नहीं था, यातायात का कोई उचित प्रबन्ध नहीं था। भोजन व विश्राम का कोई ठिकाना नहीं रहता था। उस समय उनका अथक परिश्रम देखकर कार्यकर्ता चकित रह जाते थे। वे कब खाते और कब सोते थे, यह पता ही नहीं लगता था।


पांच अप्रैल, 2009 रविवार को वे एक शिविर के लिए कुछ सामग्री लेकर एक वाहन से कैंडी जा रहे थे। उनके साथ समिति की एक कार्यकर्ता भी थी; पर वह वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया। समिति की कार्यकर्ता को अधिक चोट आयी। अतः उन्होंने एक अन्य वाहन का प्रबन्ध कर उन्हें अस्पताल के लिए भेज दिया। वे स्वयं पीछे आ रहे सेना के एक अन्य वाहन में बैठ गये। 


वे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचना चाहते थे; पर दुर्भाग्यवश सेना का वह वाहन भी दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस बार दुर्घटना इतनी भीषण थी कि रमेश बाबू तथा उस वाहन में सवार अन्य कई लोगों की वहीं मृत्यु हो गयी। इस प्रकार एक युवा कर्मयोगी अपने कर्मक्षेत्र में असमय ही काल-कवलित हो गया। वे जीवित रहते, तो उनकी अन्य प्रतिभाएं भी प्रकट होतीं; पर विधाता ने उनके लिए शायद इतना ही समय निर्धारित किया था।


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