फ्यूचर लाइन टाईम्स
पति-पत्नी के संबंध विच्छेद तलाक के मामलों की निस्तारण समयावधि क्या होनी चाहिए? इस निकृष्ट कार्य हेतु न्यायालय पहुंचने वाले पति-पत्नी यदि माता-पिता भी हैं तो उनके बच्चों को इस दौरान क्या संरक्षण मिलना चाहिए? यह सामाजिक विडंबना ही है कि कुछ दंपति विवाह जैसे पवित्र बंधन को तोड़ने का फैसला ना कुछ मुद्दों के आधार पर ले लेते हैं। तलाक़ का मुकदमा आरंभ होते ही बच्चों की कस्टडी को लेकर भी लड़ाई आरंभ हो जाती है। अदालतें चाहे जिसे कस्टडी सौंपें बच्चे मां या पिता एक के प्यार और निकटता से तो वंचित रहते ही हैं। यही नहीं बच्चे और दादा-दादी भी एक दूसरे की निकटता का अभाव झेलते हैं। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि पति-पत्नी की संबंध विच्छेद की लड़ाई में हार-जीत किसी की हो परंतु बच्चों की हार तो निश्चित होती है। दिल्ली के एक ऐसे ही मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा,-माता पिता के तलाक की बच्चे भारी कीमत चुकाते हैं। जबकि इसमें उनकी कोई गलती नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक निश्चित समयावधि में तलाक का फैसला देने का आदेश भी निचली अदालत को दिया। समाज की शिथिलता अथवा उपेक्षा समाज की छोटी इकाई परिवार पर भारी पड़ती है। तलाक के बढ़ते मुकदमे सामाजिक संरचना के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं। अदालतों की सहायता के लिए गठित मध्यस्थता केंद्र भी तलाक के मामलों को सुलझाने में खास सफलता हासिल नहीं कर सके हैं। बेहद कम स्वयंसेवी संस्थाएं पति-पत्नी के झगड़ों में पड़ती हैं। एक प्रकार से तलाक लेने का फैसला करने वाले पति-पत्नी समाज की उपेक्षा के शिकार भी हो जाते हैं। इससे उन्हें जिद, मजबूरी अथवा आवेश में खुद लिए गए गलत फैसले के रास्ते पर वापस लौटने की हिम्मत भी नहीं रहती। नतीजतन परिवार बिखर जाता है और बच्चे?जब बड़ों का भविष्य खतरे में पड़ गया हो तो बच्चों के भविष्य का क्या ठिकाना ?
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