फ्यूचर लाइन टाईम्स
अन्य देशों की संस्कृतियां तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रहीं हैं किंतु भारत की संस्कृति आदिकाल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इस संस्कृति की उदारता तथा समन्वयवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को इसमें समाहित तो किया ही है किंतु अपने अस्तित्व के मूल को भी सुरक्षित रखा है।
इस संस्कृति का विकास धर्म का आधार लेकर हुआ है इसीलिए उसमें दृढ़ता है। यह संस्कृति व्यक्ति को व्यक्तित्व देती है और उसे महान कार्यों के लिए प्रोत्साहित करती है किंतु व्यक्ति के व्यक्तित्व के चरम विकास हेतु यह सामाजिक स्तर को ही सर्वोपरी मानती है।
भारतीय संस्कृति विश्व के लिए पथ प्रदर्शक के रूप में विद्यमान रही है। प्रथम, यह सबसे प्राचीन है, द्वितीय, यह संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में सर्वाधिक ज्ञान का भण्डार है। यह एक ऐसा दर्शन है, जिसको बाल्यकाल से ही अपनाए जाने पर चरित्र का विकास होता है तथा ज्ञान प्राप्त होता है। एक बालक का विकास कैसे किया जाएगा, इसका सम्पूर्ण चित्रण भारतीय संस्कृति में किया गया है। इसमें निम्नलिखित पाँच तत्वों पर विशेष प्रकाश डाला गया, जिससे युवा चरित्रवान बने, उसमें देशप्रेम की भावना आए और उसका भविष्य संवर सके।
शिक्षा - भारतीय संस्कृति में शिक्षा को सबसे ऊँचा सम्मान दिया गया है। आदिकाल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए राजा अथवा रंक, सभी अपनी संतान को गुरूकुल में भेजते थे। जहाँ पर केवल मात्र शिक्षा ही नहीं वरन् जीवन का सम्पूर्ण ज्ञान गुरू के द्वारा प्रदान किया जाता था। सर्वप्रथम उनको गुरू और गुरूमाता का सम्मान तथा बड़ो के सम्मान की पद्धति का ज्ञान दिया जाता था। गुरूकुल की सम्पूर्ण जिम्मेदारी इन शिष्यों की होती थी, जंगल से लकड़ी काटकर लाना, भोजन बनाना आदि। अपने अतिथियों का किस प्रकार से आतिथ्यभाव किया जाए, इसका सम्पूर्ण ज्ञान गुरूकुल में दिया जाता था। इसके अतिरिक्त वेदों के ज्ञान के साथ-साथ ज्योतिषशास्त्र, समुद्रशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, भौतिकशास्त्र, अस्त्र-शस्त्र, राज्य आदि का ज्ञान दिया जाता था, जिससे युवा बहुप्रतिभावान बनकर बाहर निकलता था। इन गुणों के कारण ही मुगलों के भारत में आक्रमण से पहले तक हमारा युवा एक आदर्श युवा कहलाता था, हमारा देश सम्पन्न तथा एक ज्ञानी देश था, जहाँ ज्ञान प्राप्त करने के लिए सम्पूर्ण विश्व से छात्र भारत के आचार्याे से ज्ञान प्राप्त करने आते थे।
संस्कार - वर्तमान समय में युवाओं में संस्कार निम्न स्तर तक पहुँच गए हैं। ईश्वर की आराधना दिखावा मात्र है। लोग मंदिरों, तीर्थस्थलो पर जाकर बड़े स्तर पर प्रसाद व दान अर्पण करके यह समझते हैं कि ईश्वर को प्रसन्न कर लिया तो यह उनकी नादानी है। जो ईश्वर के दरबार में कुछ माँगने जाता है, क्या वह उस दाता को कुछ देने की साम्थ्र्य रखता है और यदि मनुष्य में ईश्वर को कुछ देने की क्षमता है तो उसे मंदिर में जाने की आवश्यकता ही क्या है, ईश्वर को भौतिक वस्तुओं से प्रसन्न नहीं किया जा सकता। वे तो भावनाओं से स्वतः ही प्रसन्न हो जाते हैं। वर्तमान समय में परिवारों में तैयार किया गया भोजन ईश्वर को अर्पित करने योग्य भी नहीं होता है। वास्तविकता यह है कि ऐसा भोजन जो ईश्वर के भोग के लिए निषेध है वो परिवार सदस्य के लिए उचित कैसे हो सकता है।
हिन्दु संस्कृति में घरों में शंखनाद का होना इसलिए आवश्यक होता है क्योंकि इसकी ध्वनि मात्र से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। परन्तु ऐसे कितने घर हैं, जिनमें नियमित रूप से शंख का नाद होता है अर्थात् ना के बराबर।
हमारी भारतीय संस्कृति में परिवारों में विभिन्न अवसरों पर यज्ञ का प्रावधान होता है, जिससे घर की दूषित हवा समाप्त होकर वातावरण शुद्ध होता है। एक सर्वेक्षण के द्वारा यह पता चला कि केवल दो प्रतिशत परिवार ही ऐसे हैं जिनमें में प्रतिदिन हवन होता है तथा 88 प्रतिशत युवावर्ग को गायत्री मंत्र के विषय में संज्ञान ही नहीं। इसका एकमात्र कारण यह है कि जब घरों में ना तो शुद्ध भोजन, ना शंखनाद, ना हवन द्वारा शुद्धि होगी तो ऐसे घरों के वृद्ध, वृद्धाश्रम में नहीं जाएगे तो कहाँ जाऐंगे? जब घर के सदस्यों में संस्कार ही नहीं होगे तो वे अपने माता-पिता को आश्रम में ही भेंजेगे। यदि जीवन सुखद बनाना है, तो अपने बच्चों को संस्कार देने की जिम्मेदारी घर के लोगो की ही है।
संगति - संगति एक महत्वपूर्ण तत्व है। प्रारम्भ से अच्छी शिक्षा और संस्कार, शुद्ध व सात्विक भोजन, हवन, यज्ञ आदि किए जाने पर भी यदि उस घर का युवा गलत संगत में बैठकर नशा या सामिष भोजन करते हैं तो उस परिवार को समाप्त होने से कोई नहीं रोक सकता। इसलिए शुद्ध संगत का होना परम आवश्यक है क्योंकि संगति खराब होने से शिक्षा और संस्कार दोनो ही नष्ट हो जाते हैं। बुरी संगति एक दीमक के समान है जो एक बार लग जाए तो कठोर-से-कठोर लकड़ी को भी भुरभुरा बना देती है। इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि बुरी संगति के कारण बड़े-बड़े राजाओं के राज्य ध्वस्त हो गए, राजनेताओं की राजनीति समाप्त हो गई, उद्योगपतियों के उद्योग समाप्त हो गए। इसलिए जीवन को सफल बनाने के लिए संगति पवित्र आत्माओं की ही होनी चाहिए, जिससे जीवन में कभी निराशा प्राप्त नहीं होगी।
एकता - अतीत में भारतीय परिवारों की एकता विश्व प्रसिद्ध थी। वास्तविकता यही है कि यदि परिवारों में एकता का भाव है और उसमें बड़ों का सम्मान होता है तो उसमें कभी कोई सेंध नहीं लगा सकता। उदाहरणस्वरूप - मधुमक्खी के परिवार में सारी मक्खियाँ रानी के आदेश का पालन करती है। छत्ते से एक साथ निकलती है और एकसाथ फूलों का रस चूसकर, छोटी-छोटी मक्खियाँ शहद का इतना बड़ा छत्ता लगा देती है और बड़े-बड़े दुश्मन को परास्त कर देती है। पशुजगत में भी ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जब छोटे जानवरों की एकता ने जंगल के राजा शेर को मजबूर कर दिया कि वह शिकार छोड़कर कर चला जाए या खुद शिकार हो जाए। आज भारत में परिवार टूट रहें हैं उसका एकमात्र कारण है एकता का आभाव। एकता के लिए शिक्षा, संस्कार और पवित्र भोजन का होना आवश्यक है। हम सभी का दायित्व है कि भारतीय संस्कृति के अनुरूप उनमें एकता का भाव उत्पन्न करके उनको खण्डित होने से बचाएं।
व्यक्तिगत पहचान - सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत पहचान बहुत आवश्यक है, जिसनें अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाई, उसके आगे सम्पूर्ण संसार नतमस्तक हुआ। जब भी कोई अविष्कार हुआ या कोई श्रेष्ठ कार्य हुआ तो वो एक व्यक्ति विेशेष के परिश्रम से ही सम्भव हुआ। उदाहरणस्वरूप - महाराणा प्रताप, शिवाजी, लक्ष्मी बाई, गुरू गोविन्द सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, महात्मा गाँधी, सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, बी0आर0 अम्बेडकर, अब्दुल कलाम, नरेन्द्र मोदी आदि को जो सम्मान प्राप्त हुआ है वह उनकी व्यक्तिगत पहचान के कारण है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को इतना ऊँचा उठाया कि सम्पूर्ण विश्व उनके समक्ष नतमस्तक हुआ।
जिन भी भारतीय परिवारों ने अपने युवाओं में इन पाँचों गुणों को प्रतिपादित कर दिया, वो परिवार सुख-समृद्धि, मान-सम्मान और उज्जवल भविष्य की ओर अवश्य ही अग्रसर होंगे और स्वयं में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल होगें।
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