फ्यूचर लाइन टाईम्स
जेएनयू का आंतरिक संघर्ष अब बाहरी हो चला है। बाहर के नकाबपोश गुंडे अंदरूनी गुंडों को सबक सिखाने आने लगे हैं। चार वर्ष पहले की उस रात को भूलना नहीं चाहिए जब आज़ादी के नारे लगे थे। लेफ्ट और राइट उन नारों का आरोप एक दूसरे पर लगाते हैं। जेएनयू की शैक्षिक उच्चता को किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। वहां पढ़ाई के साथ एक विचारधारा का भी सतत पोषण हुआ है।उस विचारधारा के कारण ही जेएनयू को लाल दुर्ग भी कहा जाता है। इस विचारधारा का जेएनयू की शैक्षिक उच्चता से कोई लेना-देना नहीं है अन्यथा बीएचयू, एएमयू, रुड़की और देश के दूसरे विश्वविद्यालय फिर कैसे ऊंचाई तक जाते। हां जेएनयू इस लेफ्ट विचारधारा के पीछे खुद को असीमित स्वायत्त होने का सुख पाता रहा है। खासतौर पर जेएनयू के शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग निजी हितों के लिए उसे लाल दुर्ग बनाये रखना चाहता है। उनके दुर्भाग्य से वर्तमान में जो सरकार है वह भगवा दुर्ग की हिमायती है। तो निष्कर्ष यह है कि जेएनयू दो विचारधाराओं के संघर्ष का अखाड़ा बन गया है। जैसे इराक, सीरिया, अफगानिस्तान में एक धर्म जाति के लोग भिन्न विचारधाराओं के हिमायती होने के कारण खुद का सर्वनाश कर रहे हैं। जेएनयू की विरासत बेहद खूबसूरत है। वहां पढ़ने वाले छात्र एकबार दाखिल होने के बाद फिर कहीं जाना नहीं चाहते।इसी कारण डेढ़ दशक तक छात्र वहां जमे रहते हैं। आखिर विज्ञान,कला, भाषा या भूगोल के छात्र को वामपंथी होना जरूरी क्यों है?या शोध और दर्शन के विद्यार्थियों को एबीवीपी का कार्यकर्ता भी क्यों होना चाहिए? वामपंथ की सत्ता के साये में तीन दशक गुजारने वाले पश्चिम बंगाल में आम बंगाली के जीवन में कोई सुधार न आने पर जेएनयू में कोई शोध कार्य क्यों नहीं होता। दरअसल वामपंथ भारत में बचे रहने के लिए एड़ियां रगड़ रहा है तो भाजपा और संघ अपनी जड़ों को देश की तलहटी तक उतारने पर आमादा हैं। दोनों के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जेएनयू मुफीद जगह है जो दिल्ली में है। विश्वविद्यालयों को बहस और विचार विमर्श का केंद्र होना चाहिए परंतु किसी खास राजनीतिक विचारधारा की नर्सरी क्यों होना चाहिए। जेएनयू को यह सवाल खुद से भी पूछना चाहिए।
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