फ्यूचर लाइन टाईम्स
इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं। एक स्वाभाविक और दूसरी नैमित्तिक। *स्वाभाविक इच्छाएँ वे होती हैं, जो आत्मा में सदा से हैं, और सदा रहेंगी, कभी नहीं हटेंगी। जैसे सुख प्राप्त करने की इच्छा।
नैमित्तिक इच्छाएँ वे होती हैं, जो किसी निमित्त अर्थात कारण से उत्पन्न हो जाती हैं और किसी अन्य कारण से नष्ट भी हो जाती हैं। जैसे जब भूख लग रही हो, तो उस समय भोजन खाने की इच्छा होती है। भोजन पूरा खा लेने के बाद, फिर तत्काल और भोजन खाने की इच्छा नहीं रहती। भोजन की पूर्ति हो जाने पर वह इच्छा समाप्त हो जाती है।
अब देखिए, सभी आत्माओं को इस प्रकार की भौतिक सुख भोगने की इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। धन की, सम्मान की, पुत्र की, परिवार की, ऊंचे पद प्रतिष्ठा की इत्यादि। समय समय पर ये भौतिक सुख की इच्छाएँ पूरी भी होती रहती हैं। परंतु जब ये इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, तब उसका परिणाम क्या आता है? यह भी सोचिये। क्या ऐसी इच्छाएँ पूरी होने पर, ये इच्छाएँ घटती हैं या बढ़ती जाती हैं? आपका उत्तर होगा, कि बढ़ती जाती हैं। फिर भी अविद्या के कारण लोग इन इच्छाओं को पूरा करते ही जाते हैं। और परिणामस्वरूप जो इच्छाएं पूरी हो नहीं पाई, वे बची हुई इच्छाएं लोगों को दुख देती हैं।
तो बुद्धिमत्ता की बात यह है कि मे भौतिक सुख की इच्छाओं को नियंत्रित करें। उनको नियंत्रण में रखना ही बुद्धिमत्ता है, अन्यथा वे दुख देंगी।
जीवन बहुत छोटा है। छोटे से जीवन में भौतिक सुख भोगने की सब इच्छाएँ पूरी होना असंभव है। तो संतोष पूर्वक जीवन जीने के लिए क्या करें? आध्यात्मिक सुख की इच्छा करें। उत्तम कर्मों को करने से ये इच्छाएँ पूरी होती हैं। यज्ञ सेवा दान दया परोपकार ईश्वरोपासना इत्यादि शुभ कर्मों के करने से आत्मा को अंदर से ईश्वर सुख देता है, वही उत्तम सुख है। उसी को भोगना चाहिए। उससे संतोष बना रहता है और व्यक्ति अपने लक्ष्य = मोक्ष की तरफ आगे भी बढ़ता रहता है।
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