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महंगाई के बदले कंबल : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


उसने हिकारत से सेठ की ओर देखा।सेठ गरीबों को कंबल बांटने आया था। उसकी आंखों में चमक और चेहरे पर दर्प का भाव था। हिकारत से देखने वाला गरीब था।उसे चौबीसों घंटे ठंड लगती थी क्योंकि वह कंबल खरीदने में समर्थ नहीं था।वह जिस दिन भी कंबल खरीदने का फैसला करता उसी दिन आटे दाल का भाव बढ़ जाता था।वह सेठ से पूछता,-कल तो इतना भाव नहीं था।सेठ खींसे निपोरकर कहता,-भाई जल्दी खरीद ले,कल और महंगा हो जाएगा। गरीब जानता है महंगाई है नहीं, महंगाई की गई है। खाद्यान्न, दालें,तेल,तमाखू सब तो हैं फिर महंगाई कैसे हो सकती है।वह सोचता रहता है,सेठ अगले ग्राहक को यही समझा रहा है कि कल और महंगाई बढ़ेगी। सुनते हैं राजशाही के जमाने में रानी असाध्य रोग से पीड़ित होती थी तो उसके हाथ से गरीबों को अनाज दान कराया जाता था। क्या वह रानी के खून पसीने की कमाई से भंडार किया हुआ अन्न होता था? रानी एक प्रबंधक होती थी या अनेक बार वह अनाज पर कुंडली मारे बैठी नागिन होती थी। उसके दान का क्या महत्व। गरीब यह भी जानता है कि वह कंबल क्यों नहीं खरीद पाता है और सेठ कंबल कैसे बांट पाता है। इसलिए उसकी नज़रों में हिकारत है,सेठ उससे कृतज्ञता के प्रदर्शन की उम्मीद रखता है। ऐसा हो नहीं सकता। खुद से जबरन वसूले गए धन को  भीख के रूप में लेना किसे अच्छा लगता है।


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