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कृषि प्रधानता के बावजूद ! राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह आदर्श वाक्य सभी ने अनगिनत बार सुना है परंतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यूजीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में कृषि को विषय के रूप में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या केवल एक प्रतिशत है। यह आंकड़ा आश्चर्यजनक नहीं अपितु खौफनाक है। देश के सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी में कृषि तीसरे स्थान पर है। जीडीपी में कृषि का हिस्सा मात्र १७ प्रतिशत है जबकि आज भी देश की कुल जनसंख्या का आधे से अधिक ५३ प्रतिशत हिस्सा कृषि से ही पेट पाल रहा है। एक समय खेती को उत्तम, व्यापार को मध्यम तथा नौकरी को निकृष्ट अथवा निम्न माना जाता था।आज स्थिति बिल्कुल उलट है। सेवा क्षेत्र का जीडीपी में सर्वाधिक योगदान ५३.६६ प्रतिशत है जबकि औद्योगिक उत्पादन दूसरे स्थान पर है और जीडीपी में ३१ प्रतिशत दखल रखता है। आजादी के ५४ वर्ष बाद २००२ में सरकार ने अर्थ व्यवस्था को गति देने वाली शक्तियों में कृषि को प्रधानता दी थी। इसके बावजूद किसान की औसत वार्षिक आय २० हजार रुपए ही है। पिछले २१ वर्षों में तीन लाख तीस हजार किसानों ने कर्ज और भूख से हारकर मौत को गले लगाया है। किसान खासकर युवा खेती से पलायन कर रहे हैं। शिक्षा पर पाश्चात्य प्रभाव का यह भी एक दुष्परिणाम है। हालांकि उद्योग, सेवा और व्यापार का वास्तविक आधार खेती और उससे संबंधित कार्य ही हैं।वन, मछली पालन, डेयरी उत्पाद, कपड़ा तथा ढाबे से लेकर फास्ट फूड तक कृषि का ही अवलंब है परंतु सरकार कृषि को उद्योग का दर्जा देने को तैयार नहीं है। परिणाम स्वरूप कृषि शिक्षा से लेकर कृषि कार्य तक से पलायन जारी है।नगद मजदूरी के लिए लोग आसानी से खेती को छोड़कर शहर का रुख कर लेते हैं।रही सही कसर सरकारें विकास के नाम पर जमीनों के बेजा अधिग्रहण से पूरी कर देती हैं।


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