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खुद से कोई बड़ा तो हो : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 
बादशाह अकबर मां की मृत्यु पर गहरे शोक में डूब गए। दरबारियों ने बहुतेरी दिलासा दी परंतु उनका अवसाद कम नहीं हो रहा था। किसी ने हिम्मत करके आखिरकार पूछ ही लिया कि क्यों इतने दुखी हैं। अकबर ने कहा,-अब मुझे कोई अक्कू कहने वाला नहीं है।" एक परिचित हैं। घर के जिम्मेदार हैं परंतु उन्होंने अपने पुत्रों की पढ़ाई से लेकर रोजगार की व्यवस्था तक से खुद को विरक्त रखा। इसके सकारात्मक परिणाम भी आये कि पुत्र आरंभ से ही स्वावलंबी बनते चले गए। इसके नकारात्मक परिणाम भी आये। पुत्र दिशाहीनता के शिकार हो गए। फिर अकबर का किस्सा लेते हैं। अनारकली को लेकर सलीम ने बगावत कर दी। क्या वह बगावत राज्य के विरुद्ध थी? नहीं, वह बगावत एक पुत्र की पिता के विरुद्ध थी। दुर्भाग्य या सौभाग्य से वह पिता बादशाह भी था। इसलिए तारीखनवीस भ्रमवश यह भी मान बैठे कि सलीम ने राज्य के विरुद्ध बगावत की। दरअसल किसी का भी खुद सक्षम होना बुरा नहीं है। फिर भी कोई साया, कोई संरक्षक, कोई पथप्रदर्शक या कोई ऐसा कंधा होना चाहिए जिसपर जब शाम हो जाए,जब थकान हो जाए,जब निराशा घेर ले तो अपना सिर उसपर रखकर राहत हासिल की जा सके। यह कंधा, यह अवलंब किसी अपने से बड़े का हो सकता है जो प्यार से सहला दे या प्यार के अधिकार से डांट भी दे।खुले आसमान के नीचे इतना बड़ा साया पिता के अलावा और किसके पास है।


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