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जबरदस्ती का कुपोषण : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


मैंने क्वांटम थ्योरी नहीं पढ़ी परंतु क्वांटिटी थ्योरी से मैं भली-भांति परिचित हूं। दिनों दिन बढ़ते बच्चे को खाने में क्या क्या मिलना चाहिए? एक सामान्य आय वाला परिवार रोटी, सब्जी के अतिरिक्त अपने बच्चों को दूध और फल खिलाने के बारे में सोचता है। जैसा कल मैंने लिखा शहरों कस्बों में दूध की शुद्धता अब किंवदंती बन चुकी है। पैक्ड और दुकानों पर खुला बिकने वाला दूध वास्तव में क्या है कौन बता सकता है। फलों का भाव आम आदमी की क्षमता को चुनौती देता है। मौसमी फल बामुश्किल एक हफ्ते के लिए सहज सुलभ होते हैं। फलों को गलने सड़ने से बचाने के लिए उनके ऊपर रसायनों की परत चढ़ाई जाती है। इससे दो नुकसान स्पष्ट हैं। एक तो फलों के साथ जबरन जहरीले रसायनों को भी खाना पड़ता है जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। दूसरे फलों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने से उन्हें मनमर्जी दामों पर बेचा जाता है। गांवों के देश भारत में घी की बहुत महत्ता रही है। कड़ी मेहनत करने वाले किसान से लेकर मेहमानों तक को घी खिलाना जरूरत और शौक होता था। आयुर्वेद में घृत को अमृत समान बताया गया है।आज एलोपैथी के चिकित्सक चाहे जितना मना करें परंतु शुद्ध देसी घी की सुगंध लेने को उनकी नासिका भी तरसती है। प्रश्न यह है कि घी है कहां।मदर,अमूल और उन सरीखी डेयरियों ने असल दूध,दही,घी पर डाका डाल दिया है।सहज उपलब्ध किंतु असल से परे पाश्चुराइज दुग्ध उत्पादन ने एक नकल का संसार खड़ा कर दिया है। एक पाव दूध पीने वाले बच्चे को वास्तव में कितना और कैसा दूध मिला कौन बता सकता है। यह क्वांटम थ्योरी नहीं है। यह विशुद्ध क्वांटिटी थ्योरी है जिसमें मात्रा का खेल हो रहा है। गाढ़ी मलाई किसी रसायन के दम पर जम रही है या भैंस गाय के बल पर कोई बताने को तैयार नहीं 


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