-->

छात्र आंदोलनों के बदल गये मुद्दे : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


1985 में मैं आठवीं कक्षा का छात्र था। एक नये अध्यापक हमें भूगोल विषय पढ़ाने आये। उन्हें विस्तार से लिखाने की आदत थी,सो हमारी कॉपियां तेजी से भरने लगीं। इससे दो समस्याओं का जन्म हुआ।घरवाले एक कॉपी ही मुश्किल से दिलवाते थे, दूसरे लंबे चौड़े आकार के उत्तर याद करने में मुश्किल पेश आती थी। लिहाजा हमने उन अध्यापक महोदय के विरुद्ध मोर्चा खोलने का निर्णय लिया और मॉनीटर के माध्यम से एक पत्र प्रधानाचार्य को भिजवा दिया। प्रधानाचार्य जानते थे कि किसकी करतूत है, इसलिए उन्होंने मुझे बुला भेजा और समस्या के बारे में पूछताछ की। लब्बोलुआब यह कि उन अध्यापक महोदय ने छात्रों की समस्या के मद्देनजर अपने तरीके में बदलाव किया। मेरे लेखक मित्र अजीत सिंह तोमर'बजरंगी' का किस्सा और दिलचस्प है।1975 में वह मिहिरभोज डिग्री कॉलेज दादरी (तब बुलंदशहर में था) में बीएससी के छात्र थे। कस्बे में दो सिनेमा हाल रामा व पायल चलते थे। बजरंगी जी के नेतृत्व में छात्रों ने सिनेमा के टिकट पर रियायत के लिए आंदोलन किया। आंदोलन बढ़ा तो मिहिरभोज इंटर कॉलेज और जनता इंटर कॉलेज के छात्र भी शामिल हो गए। हजारों छात्रों ने एक दिन दोनों सिनेमाघरों में फिल्म के शो स्थगित करा दिए। बात जिला प्रशासन तक पहुंची तो भारी पुलिसबल व पीएसी को मौके पर भेजा गया। पुलिस व छात्रों के बीच तीखी नोंकझोंक भी हुई। अंततः प्रशासन की मध्यस्थता में सिनेमाघर मालिकों व छात्रों के बीच छात्रों को सस्ती दर पर टिकट देने पर सहमति बनी। अब विश्वविद्यालयों में छात्रों के आंदोलन पढ़ाई को लेकर नहीं होते। वहां छात्र राजनीतिक दलों के एजेंडे को आगे बढ़ाने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन, पुलिस प्रशासन और सरकार समस्याओं को भली प्रकार जानते हैं। इसलिए समाधान के स्थान पर नये प्रकार की समस्याएं खड़ी की जा रही हैं। पहले से ही राजनीतिक दलों के उपकरण बने छात्रों का इस तरीके से घनचक्कर बनना तय है।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ