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अब भी सहानूभूति शेष है ? राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



निलंबित आईपीएस वैभव कृष्ण का खुद का शीशे का घर भी चकनाचूर हो गया। उन्हें निलंबन के साथ अपने कैडर की नफ़रत का सामना भी करना होगा। उन्हें विभिन्न संस्थाओं का प्रायोजित समर्थन भी बचा नहीं सका। हालांकि उनकी शिकायतों की जद में आए चार-पांच दूसरे आईपीएस भी जिलों की कप्तानी से हटा दिए गए हैं। अफसरों की तैनाती, तबादले और निलंबन राज-काज है। मुझे इसपर कोई हैरानी नहीं है।मेरी हैरानी उन पत्रकार साथियों को लेकर है जो जांच और मामले की गहराई समझे बगैर एकदम से पुलिस कप्तान को ईमानदार, चरित्रवान बताने के लिए मैदान में आ गए। अफसरों से आत्मीयता हो सकती है। हालांकि पत्रकारिता के सिद्धांत इसे निषेध करते हैं। परंतु अपना पत्रकारीय कर्म छोड़कर एक अफसर की तरफदारी में जुटना क्या साबित करता है। गुजरात की फॉरेंसिक लैब से जांच के बाद वैभव कृष्ण के चरित्र को लेकर क्या अभी भी वैसी ही सहानुभूति है या हमाम में सभी नंगे थे। निलंबन की खबरें शुरू होने के बाद भी सच्चाई को नकारने का प्रयास साथी पत्रकारों ने काफी देर तक किया। जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को चाल-चरित्र से भी गरिमा बाधित होना चाहिए। उसके अवांछित कार्य को निजी जीवन की आड़ नहीं दी जा सकती है। मुझे अफसोस है कि मेरे पेशे के लोग अपनी गरिमा के प्रति लापरवाह हैं।


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