फ्यूचर लाइन टाईम्स
एक पत्रकार साथी के पिताजी का देहान्त हो गया। व्हाट्स ऐप पर यह दुखद् समाचार प्रसारित हुआ तो शोक व्यक्त करने वाले सक्रिय हो गए। इनमें कोई पुलिस वाला नहीं था। प्रतीक्षा के बाद एक अन्य पत्रकार ने इस प्रकार क्षोभ व्यक्त किया,-पुलिस वाले बहुत संवेदनहीन होते हैं, यदि कोई पुलिस वाला मरता है तो पत्रकार दुख जताता है परंतु फलां पत्रकार के पिताजी गुजर गए किसी पुलिस वाले ने शोक प्रकट नहीं किया।' इस पत्रकार साथी ने इस एक संदेश से कई सवाल खड़े किए। पुलिस और पत्रकार जिस प्रकार अत्यंत निकट आ चुके हैं उसमें यह संदेश उचित है। गौतमबुद्धनगर ही नहीं समूचे उत्तर प्रदेश से व्हाट्स ऐप पर पुलिस को खुश करने वाली पत्रकारिता की जा रही है। कहीं किसी अधिकारी का अपराधियों पर चक्र घूम रहा है, कहीं कोई कोतवाल अपराधियों का काल बनकर अवतरित हो रहा है। अपराध चरम पर हैं और पुलिस की श्रेष्ठता बखानी जा रही है। आगमन पर स्वागत और तबादले पर घोर प्रशंसनीय यादें किसकी जुबां से टपक रहे हैं। संबंधों की प्रगाढ़ता में किसकी ज्यादा रुचि है? पत्रकारों की या पुलिस की। जहां तक पुलिस के असंवेदनशील होने का प्रश्न है तो उनकी संवेदनशीलता खुद के लिए क्यों अपेक्षित है। वैसे भी बधाई गाने वालों को नेग मिलता है, सहानुभूति या सम्मान नहीं। फिर भी संबंधों पर इतना गुरूर है तो दुखी होना जायज है।
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