फ्यूचर लाइन टाईम्स
योगदर्शन का कथन है कि ''सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः'' (योग 2.13) ।
अर्थात् जब तक कारण (अविद्या और कर्म) विद्यमान रहता है, उसका फल होता है जाति, आयु और भोग । 'जाति' अर्थात् योनि : पशु , पक्षी या मनुष्य योनि, छोटी या लम्बी 'आयु' और 'भोग' अर्थात् सुख-सुविधा, दुःख, व्याधि,भोगादि का सामान, अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण ।
इस जन्म में किये गये जिन कर्मों का फल नहीं मिल पाता, वे अगले जन्मों के खाते में चले जाते हैं ।
देहावसान पर आत्मा अपने सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के साथ अपने कर्मों की गठरी को उठाए हुए उड़ जाता है और परमात्मा के कर्म विधान के अनुसार नया शरीर धारण करता है। वह शरीर मनुष्य योनि का हो सकता है या पशु-पक्षी योनि का ।
योनियाँ असंख्य है परन्तु गरुण पुराण (4.62) में 84 लाख योनियों का उल्लेख है :
कीटाश्च पशवश्चैव पक्षिणश्च जलेचराः।
चतुरशीतिलक्षेषु कथितादेवयोनयः।।
अर्थात् कीट, पशु, पक्षी, जलचर आदि चौरासी लाख जीव की योनियाँ हैं। यद्यपि अन्य धर्मग्रन्थों में 84 लाख योनियों का उल्लेख नहीं मिलता, तथापि यह योनि गणना आज के जीव विज्ञान की योनि गणना से मेल खाती है । जीव विज्ञान के अनुसार 80 लाख से 1 करोड़ विविध योनियाँ (8 to10 million Species of flora and fauna) हैं ।
वैदिक विचारधारा के अनुसार जीव इन विविध योनियों में चार प्रकार से प्रकट होता है : जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज । जरायुज का अर्थ है माता के गर्भ से एक थैली में लिपटा हुआ , जैसे मनुष्य और पशु । अण्डज का अर्थ है अण्डे के रूप में उत्पन्न होने वाले जैसे अधिकतर पक्षी एवं जलचर। स्वेदज यानी कि पसीने से अर्थात् गर्मी और पानी (Heat and Dampness) के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले ; जैसे जूँ , बैक्टीरिया। उद्भिज्ज अर्थात् पृथ्वी की सतह को फाड़कर पैदा होने वाले; जैसे पेड़ और पौधे ।
इस सन्दर्भ में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्राचीन भारत की वैज्ञानिक खोज बहुत उच्च स्तर की थी । उन्होंने सहस्रों वर्ष पहले वनस्पति में जीव की सत्ता को माना था जबकि विज्ञान तो आज से केवल सौ वर्ष पहले ही इस बात को सिद्ध कर पाया है कि पेड़-पौधे भी अन्य प्राणियों की तरह साँस लेते हैं, अन्न खाते हैं और प्रजनन करते हैं ।
छांदोग्य उपनिषद् (6.11.1-2) का कथन है :
स एष जीवेनात्मनानुप्रभूतः पेपीयमानो मोदमानस्तिष्ठति ।
अर्थात् वह यह (वृक्ष) जीवात्मा की शक्ति से सम्पन्न, पृथ्वी के रसों को पीता हुआ, हर्षित होता हुआ, खड़ा रहता है।
''अस्य यदेकां शाखां जीवो जहात्यथ सा शुष्यति''
अर्थात् इस की (वृक्ष की) जिस एक शाखा को जीव छोड़ देता है, वह शाखा सूख जाती है ।
जीव असंख्य हैं और वे नाना प्रकार की योनियों में अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेते हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद् (5.12) का कथन है :
'स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति।
अर्थात् आत्मा स्थूल व सूक्ष्म अनेक देहों को अपने गुणों, शुभाशुभ कर्मों के अनुसार अपनाता है।
सभी प्राणियों में जीव तत्त्व का स्वरूप एक जैसा है ; केवल प्रत्येक जीव पर अविद्या और कर्मों का प्रभाव अपने-अपने प्रकार का है । सभी जीव मूलरूप में एक जैसे हैं । जीव का कोई लिंग भी नहीं है । जीव नर, मादा व नपुसंक रूप केवल अपने कर्मों के आधार पर प्रत्येक योनि में अपनाते हैं ।
इसी प्रकार कोई जीव अगर इस जन्म में मनुष्य है, अगले जन्म में पशु, पक्षी ,कीट , पतंग या वृक्ष भी हो सकता है और इस जन्म के पशु, पक्षी, वृक्ष अगले जन्म में मानव शरीर धारण कर सकते हैं , जब ईंश्वर की व्यवस्था के अनुसार उनके कुकर्मों का भुगतान हो जाता है। आज के आतंकवादी जो सैकड़ों निर्दोषों की हत्या कर देते हैं , उन्हें कई बार कीट-पतंग, सांप - बिछू आदि निकृष्ट योनियों में जन्म लेना पड़ेगा।
प्राणीमात्र में एक प्रकार का ही तत्त्व है । इस आशय को स्पष्ट करते हुए छान्दोग्य उपनिषद् (6.9.3-4) में कहा गया है :
त इह व्याघ्रो वा सिंहो वा वृको वा वराहो वा कीटो वापतद्दो वा दंशो वा मशको वा यद्यद्भवन्ति तदाभवन्ति ।।
स य एषोsणिमैतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति ।।
अर्थात् जीव इस लोक में बाघ, सिह, भेडि़या, सूअर, कीड़ा, पतंगा (पक्षी), डांस, मक्खी, मच्छर आदि योनि को पा कर वैसा ही हो जाता है यानी वैसा ही दिखाई देता है। वह जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्व इन सब में है, वही सत्य है, शाश्वत है, आत्मा है। हे श्वेतकेतु ! वही तुम हो अर्थात् तुम भी वैसे ही हो।
अग्नि की उपमा से इसी आशय को कठोपनिषद् के मन्त्र (2.2.9) में सुस्पष्ट कर दिया गया है :
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।।
अर्थात् जैसे अग्नि पदार्थों में प्रविष्ट हो कर उस पदार्थ का रूप ग्रहण कर लेती है वैसे ही भिन्न-भिन्न देहों को प्राप्त कर जीवात्मा का बाहरी रूप तद्रूप हो जाता है।
ऋग्वेद (1.164.30) में कहा गया है :
अमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः।
अर्थात् अमर जीवात्मा नश्वर शरीर के साथ सयोनि अर्थात् उसी योनि का हो जाता है।
उपरोक्त 84 लाख योनियों में मनुष्य योनि ही भोगयोनि के साथ-साथ कर्मयोनि भी है । अन्य सब योनियाँ भोग योनियाँ ही हैं । अर्थात् केवल मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है । अन्य सब की क्रियाएँ (Activities) हैं, कर्म (Deeds) नहीं । मनुष्येतर प्राणी केवल अपने पूर्वकर्मों के फल को भोग रहे हैं, कर्म नहीं कर रहे हैं । यदि सिंह मृग को मारकर खा जाता है तो सिंह इस कार्य के लिये उत्तरदायी नहीं है । हाँ यदि मनुष्य मृग को मारता है या मार कर खाता है, तो वह हिंसा का कुकर्म करता है जिसका उसे फल भोगना पड़ेगा ।
मनुष्य योनि इसलिये कर्म योनि कहलाती है क्योंकि मनुष्य अच्छे या बुरे कर्म करने में स्वतन्त्र है और परमात्मा ने उसे अच्छे या बुरे कर्मों में भेद करने की बुद्धि दी है, सोचने - विचारने की क्षमता दी है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार अन्य योनियों में जन्मीं जीवात्माओं के सूक्ष्म शरीर में भी निहित हैं, परन्तु वे सुषुप्त (Dorment) अवस्था में रहते हैं जिनका उपयोग करने की उनमें क्षमता नहीं है । मानव शरीर ही ऐसा है जिसमें जीव को बुद्धि का प्रयोग करने और कर्म करने की स्वतन्त्रता मिली है । इसलिये हमारे धर्मग्रन्थों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ मानी गई है :
'नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्।'
मनुस्मृति का कथन है 'भूतानां प्राणिनो श्रेष्ठः प्राणिनां श्रेष्ठो बुद्धिमान अर्थात् भूतों (जीव, निर्जीव) में प्राणी श्रेष्ठ है। प्राणियों में बुद्धिमान श्रेष्ठ है। विज्ञान भी इसी बुद्धि के कारण मानव को सृष्टि का सरताज मानता है
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