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स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान दिवस पर विशेष रूप से प्रचारित

 फ्यूचर लाइन टाईम्स


स्वामी श्रद्धानन्द जी का हिंदी प्रेम, प्रेरणदायक संस्मरण


स्वामी श्रद्धानन्द के महाराज के हिंदी प्रेम जगजाहिर था। आप जीवन भर स्वामी दयानंद के इस विचार को की सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के माध्यम से एक सूत्र में पिरोया जा सकता हैं सार्थक रूप से क्रियान्वित करने में अग्रसर रहे। सभी जानते हैं की स्वामी ने कैसे एक रात में उर्दू में निकलने वाले सद्धर्म प्रचारक अख़बार को हिंदी में निकालना आरम्भ कर दिया था जबकि सभी ने उन्हें समझाया की हिंदी को लोग भी पढ़ना नहीं जानते और अख़बार को घाटा होगा। मगर वह नहीं माने। अख़बार को घाटे में चलाया मगर सद्धर्म प्रचारक को पढ़ने के लिए अनेक लोगों ने विशेषकर उत्तर भारत में देवनागरी लिपि को सीखा। यह स्वामी ने तप और संघर्ष का परिणाम था। स्वामी द्वारा 1913 में भागलपुर में हुए हिंदी सहित्य सम्मेलन में अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया गया था उसमें उनका हिंदी प्रेम स्पष्ट झलकता था। स्वामी लिखते हैं मैं सन 1911 में दिल्ली के शाही दरबार में सद्धर्म प्रचारक के संपादक के अधिकार से शामिल हुआ था। मैंने प्रेस कैंप में ही डेरा डाला था। मद्रास के एक मशहूर दैनिक के संपादक महोदय से एक दिन मेरी बातचीत हुई। उन सज्जन का आग्रह था कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा बन सकती हैं। अंग्रेजी ने ही इन्डिन नेशनल कांग्रेस को संभव बनाया हैं, इसीलिए उसी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए। जब मैंने संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री आर्यभाषा हिंदी का नाम लिया तो उन्होंने मेरी समझ पर हैरानी प्रकट की। उन्होंने कहा कि कौन शिक्षित पुरुष आपकी बात मानेगा? दूसरे दिन वे कहार को भंगी समझ कर अपनी अंग्रेजीनुमा तमिल में उसे सफाई करने की आज्ञा दे रहे थे। कहार कभी लोटा लाता कभी उनकी धोती की तरफ दौड़ता। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मिस्टर एडिटर खिसियाते जाते। इतने में ही मैं उधर से गुजरा। वे भागते हुए मेरे पास आये और बोले "यह मुर्ख मेरी बात नहीं समझता" इसे समझा दीजिये की जल्दी से शौचालय साफ़ कर दे। मैंने हंसकर कहा - "अपनी प्यारी राष्ट्रभाषा में ही समझाइए।" इस पर वे शर्मिंदा हुए। मैंने कहार को मेहतर बुलाने के लिए भेज दिया। किन्तु एडिटर महोदय ने इसके बाद मुझसे आंख नहीं मिलाई।


भागलपुर आते हुए मैं लखनऊ रुका था। वहां श्रीमान जेम्स मेस्टन के यहाँ मेरी डॉ फिशर से भेंट हुई थी। वे बड़े प्रसिद्द शिक्षाविद और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर हैं, भारतवर्ष में पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य बनकर आये थे। उन्होंने कहां कि मैंने अपने जीवन में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थियों को पढ़ाया हैं। वे कठिन से कठिन विषय में अंग्रेज विद्यार्थियों का मुकाबला कर सकते हैं, परन्तु स्वतंत्र विचार शक्ति उनमें नहीं हैं। उन्होंने मुझसे इसका कारण पूछा। मैंने कहा की यदि आप मेरे गुरुकुल चले तो इसका कारण प्रत्यक्ष दिखा सकता हूँ, कहने से क्या लाभ? जब तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा नहीं होगी, तब तक इस अभागे देश के छात्रों में स्वतंत्र और मौलिक चिंतन की शक्ति कैसे पैदा होगी ?


100 वर्ष पहले दिए गए विचार आज भी कितने प्रसांगिक और यथार्थ हैं पाठक स्वयं अवगत हैं


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