फ्यूचर लाइन टाईम्स
द्वारिका पहुंचने पर वैदिक-विधि अनुसार श्री कृष्ण का रुक्मिणी के साथ पाणिग्रहण-संस्कार सम्पन्न हुआ।
विवाह हो गया। पति-पत्नी आनन्दपूर्वक रहने लगे। एक दिन रुक्मिणी ने सन्तान की इच्छा प्रकट की तो कृष्ण और रुक्मिणी ने उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिए कठोर ब्रह्मचर्य का पालन किया। महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पूर्व अश्वत्थामा योगेश्वर कृष्ण के पास गये और श्री कृष्ण से उनका सुदर्शन चक्र मांगा तो उन्होंने कहा।
ब्रह्मचर्य महद् घोरं चीतर्वा द्वादशवार्षिकम्।
हिमवत्पाश्र्वमास्थाय यो मया तपसार्जित:।।
समानव्रतचारिण्यां रुक्मिणयां योsन्वजायत।
भसनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम मे सुत:।।
- सौप्तिकपर्व १२/३०-३१
मैंने १२ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके हिमालय की कंदराओं और गिरि-गुहाओं में रहकर बड़ी तपस्या के द्वारा जिसे प्राप्त किया था, मेरे समान व्रत का पालन करने वाली रुक्मिणी देवी के गर्भ से जिसका जन्म हुआ है। जिसके रुप में साक्षात तेजस्वी सनत्कुमार ने ही मेरे यहाँ जन्म लिया है वह मेरा प्रिय पुत्र प्रद्युम्न है। मेरा यह दिव्य चकरा तो उसने भी कभी नही मांगा था।
बारह वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात प्रद्युम्न उत्पन्न हुआ जो रंग रूप, शील, सदाचार, विद्यादि में श्रीकृष्ण के तुल्य ही था। श्रीकृष्ण को इस संतान पर इतना गर्व था कि वे उसे 'में सुतः' कहा करते थे। श्रीकृष्ण कितने तपस्वी, संयमी एवं सदाचारी थे। यह इस घटना से स्पष्ठ है।
क्या ऐसा तपस्वी और सदाचारी व्यक्ति गोपियो के पीछे भाग सकता है ? कभी नही, सर्वथा असंभव है। श्रीकृष्ण वेदों के प्रकाण्ड पंडित थे और वेद में लिखा है।
उभे धुरौ वह्निरापिब्दमानोSन्तर्योनेव चरति द्विजानि:* ऋग्वेद १०/१०१/११
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