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ऋति जीवन से इंद्र की कृपा प्राप्त करें                       

 फ्यूचर लाइन टाईम्स 
       
हम रितमय जीवन वाले बनें | इस प्रकार का जीवन यज्ञमय  जीवन होता है | इससे हो दूसरों की सहायता, क ल्यां व परोपकार की भावना बलवती ह्प्ती है | इससे ही संसार मधुर बनाता है | जब हम रितामय जोवन वाले बन जाते हैं तो हमारे में गोतम , प्रशास्तेंद्रिय आदि गुण आ जाते हैं | जब इस प्रकार के गुण आ जाते हैं तब ही हमारे पर इंद्र की कृपा होती है | इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए यजुर्वेद अध्याय तेरह के यह तिन मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं :- 
 मधु वाताSऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धव: | माध्वीर्न संत्वोश्धी:   || यजुर्वेद १३.२७ || 
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ँ्रज: | मधु द्योरस्तु न: पिता || यजुर्वेद १३.२८ ||
मधुमान्नो वनास्पतिर्मधुमाँ २||Sअस्तु सूर्य:| माध्वीर्गावो भान्तु न:  ||यजुर्वेद १३.२८ ||
       यजुर्वैद के ही विगत मंत्र में उपदेश करते हुए बताया गया था कि जो  व्यक्ति अपना जीवन सुन्दर बना लेते हैं , उन्हें ही ऋतवान् कहा जा सकता है | सुन्दर जीवन से युक्त व्यक्ति ही ऋतावन् कहलाता है | जिस का जीवन सुन्दर नहीं है , कुछ विशेष प्रकार के गुण जिसके जीवन में प्रतिलक्षित नहीं होते , ऐसे व्यक्ति को हम ऋतवान् नहीं कह सकते | अत: जो व्यक्ति अपने जीवन की सब क्रियाओं को , सब कर्मों को , सब प्रकार की गतिविधियों को ऋत के अनुसार करते हैं , वह ही ऋतवां कहलाने के अधिकारी हैं | इस प्रकार के व्यक्ति सदा अपनी क्रियाओं को एक निश्चित क्रम में , एक  निश्चित समय में तथा एक निश्चित स्थान पर करने के कारण ही ऋतवान् कहलाते हैं | हम ऋत् का अर्थ यग्य के रूप में भी ले सकते हैं | अत: इस प्रकार के लोगों को जीवन यज्ञमय होने से हम इन्हें यज्ञीय भी कह सकते हैं | यह व्यक्ति अपने जीवन के सब व्यापार को दूसरों के हित में प्रयोग करते हैं | इस लिए यह यज्ञीय होते हैं | इस प्रकार के लोग अपने स्वार्थ की , अपने हित की कभी चिंता नहीं करते | यह अपने स्वार्थ से , अपने हित से ऊपर  उठ कर ही कर्मशील होते है


२. ऋति की वायुएं मधुर होती हैं 
जिन व्यक्तियों का जीवन ऋतमय होता है , यज्ञीय होता है , त्यागा पूर्ण होता है , उन पर वायु भी सदा मधुरता पूर्ण ही चलती है | इसा प्रकार की मधुर वायुएँ कभी उन्हें किसी प्रकार की हानि नहीं देती , यह सदा मधुर होने के कारण सुख का ही कारण होती हैं |
ऋत व्रती व्यक्तित्व के धनी मानव के लिए नदियाँ और उनका जल भी सदा सुखद ही होता है | नदियाँ इस प्रकार के व्यक्ति के जीवन में मधुरता घोल देती हैं , यह मधुर बनाकर बहती हैं | नदियाँ तथा इन नदियों का जल इस प्रकार के गुणों वाले व्यक्ति के लिए सदा मधुरता , सदा कल्याण के लिए रहती हैं तथा इस व्यक्ति के सुखों को बढाने का कार्य करती हैं | इन का जल ऋति व्यक्ति के स्वास्थ्य को बढाने वाला , उत्तम बनाने वाला होता है | इतना ही नहीं इस जगत् में जितनी भी ओषध हैं , वनस्पतियाँ हैं , वह सब इस प्रकार के व्यक्ति के जीवन में सुखों की वर्षा करती हैं , स्वास्थ्य को संरक्षण देती हैं तथा उसे सदा विजयी बनाने का कार्य कराती हैं |
३.  मन्त्र में यह क्रम कितना सुन्दर दिया है कि इस प्रकार के व्यक्ति के लिए शीतल हवाएं चलती हैं , यह वायु वर्षा से युक्त होने के कारण शीतल , ठंडी व स्वास्थ्य वर्धक होती हैं | नदियाँ भी अपने में शीतल जल समेटे रहती है तथा अपने शीतल जल से ऋति व्यक्ति के स्वास्थ्य को उत्तम व स्वस्थ रखती हैं तथा इसके लिए ओषध व वनस्पतियाँ उसका जीवन उत्तम व स्वस्थ बनाने का कार्य करती हैं , यह तथ्य विशेष रूप से इस मन्त्र में दिए गए हैं | 
४. मन्त्र आगे बता रहा है कि इस प्रकार के लिए रात्रि का काल भी माधुर्य लिए हुए आवेगा | रात्रि को प्राय: अच्छा नहीं समझा जाता | विश्व के अधिकाँश बुरे कार्य रात्री के समय ही होते हैं , अँधेरे में ही होते हैं | अनेक लोग तो अँधेरे में जाने से भी डरते हैं क्योंकि हानि देने वाले निशाचर इस समय ही प्रकट होते हैं किन्तु मन्त्र कहता है कि ऋति व्यक्ति के लिए रात्रि भी मधुरता लेकर आवे, शुभ लेकर आवे | रात्रि के समय उसे सदा मीठी नींद का सुख मिले जबकि उष:काल भी सदा इस के लिए सुखद हो , आशा की नयी किरणें लेकर आवे, शुभ सन्देश व शुभ समाचार लेकर आवे | प्रात: का यह उषाकाल उसके सब दोषों का नाश कर दे तथा नवीन प्राण की शक्ति से संपन्न करे |


५.इस जगत् को पार्थिव लोक कहा गया है | इस प्रथ्वी का अस्तित्व ही इसके पार्थिव स्वरूप के कारण है | इस लिए मन्त्र कह रहा है की यह पार्थिव लोक अर्थात् इस प्रथ्वी की मिटटी भी इस व्यक्ति के लिए सुखद हो , माधुर्य से युक्त है | यह मिटटी इसके सब कष्टों को दूर करने वाली हो तथा इसका शरीर पर प्रयोग इसके सब प्रकार के विषों का नाश करने वाली हो | इस कारण हम पृथ्वी को माता के सामान पालन व पौषण करने वाली मानते हैं | यह जो द्युलोक है , हम इसे पिता के समान मानते हैं क्योंकि यह हमारा पिता के समान पालन करता है | इसलिए मन्त्र कहता है कि यह पितृ तुल्य द्युलोक हमारे लिए माधुर्य लिए रहे , हमारे लिए उत्तम करने वाला हो | जिस प्रकार माता व पिता अपनी संतान का सदा सुख चाहते हैं ठीक उस प्रकार ही पृथ्वी तथा द्युलोक हमारा माता पिता के सामान पालन करते हैं तथा ऋतियों अर्थात् यज्ञीय व्यक्ति के लिए सदा हितकारी हों | संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि दिन रात के ही सामान पृथ्वी व द्युलोक भी इस प्रकार के सब लोगों के लिए सुख व स्वास्थ्य सम्बन्धी उन्नति का  कारण बनें | 
६.  इस जगत् की सब वनस्पतियाँ भी सुखों की वर्षा करने वाली हों , शक्ति को बढाने वाली हों , स्वस्थ रखने वाली हैं तथा माधुर्य गुण से भरपूर हों | इस के साथ ही साथ हमारा यह जो सूर्य है , यह भी हमारे लिए माधुर्य देने वाला हो | सब प्रकार की गोवें भी हमे मीठा , स्वास्थ्यप्रद व मधुर दूध देने वाली हों | हम जानते हैं कि इस सब के लिए सूर्य की किरणों का  महत्त्व होता है | सूर्य की किरणें ही वनस्पतियों की वृद्धि का कारण होती हैं , इन्हें स्वस्थ रखते हुए स्वास्थ्य वर्धक बनाती हैं  तथा स्वस्थ रखती हैं | दुधारी पशु अर्थात् गाय का दूध भी मधुर , स्वच्छ व स्वास्थ्य वर्धक बनाने के लिए सूर्य का ही लाभ लेती हैं | इस कारण इन सब उत्पादों के लिए सूर्य किरणों का विशेष महत्त्व है | इसलिए मन्त्र इन किरणों की मधुरता की विशेष रूप से कामना करता है |     ७. जीवन को ऋतमय बना कर ही हम सब प्रकार के सुल्हों ओ पा सकते हैं , इसके बिना नहीं | इस लिए मन्त्र कहता है कि सब प्रकार के आधी दैविक जगत् को अपने अनुकूल बनाने के लिए हम ऋट को अपने जीवन में धारण करें , सब प्रकार के यज्ञों को अपने जीवन का अंगा बनावें ताकि सब और से सब प्रकार की मधुरता हमें मिला सके | 
                                           आधिदैविक कष्ट उस समय आते हैं जब हमारे अन्दर से , हमारे जीवन से ऋट का नाश हो जाता है , सब प्रकार के यज्ञों का नाश हो जाता है | इसा लिए हम यत्न पूर्वक सब प्रकार के  
ऋत को, सब प्रकार के यागों को हम धारण कर अपने जीवन को मधुर बनाने के लिए पुरुषार्थ करें |   


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