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निहत्थी लड़कियां : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



आमतौर पर ट्रे में पानी के गिलास लेकर आने वाली लड़की पानी ही पेश नहीं करती बल्कि एक अलिखित,मूक आवेदन भी प्रस्तुत करती है जिसका मजमून कुछ इस प्रकार होता है,-मैं आपके घर में बहू बनकर आने को तैयार हूं, आप चाहें तो मुझे स्वीकार सकते हैं।" ऐसा लड़की को देखने के समय होता है। लड़की पढ़ी लिखी पोस्ट ग्रेजुएट भी हो सकती है।उसका रूप, देहयष्टि भी अच्छी हो परंतु उसके पिता की हैसियत कुछ खर्च करने की न हो तो यह आवेदन याचिका में बदल सकता है। महानगरों में स्थिति भिन्न हो सकती है परंतु कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी कमोबेश स्थिति यही है। लड़का कौन है,कितना पढ़ा लिखा है,उसका चरित्र कैसा है इसपर लड़की का कोई सवाल नहीं।उसे खुद के स्वीकार/अस्वीकार का भय ऐसे सवाल करने की अनुमति नहीं देता। अक्सर ऐसे मौकों पर मैं अंतर जज्बाती हो जाता हूं। मुझे लगता है कि लड़की को भी प्रश्न पूछने चाहिएं। हालांकि गरीब की बेटी को अपने पिता पर अमीर की बेटी से ज्यादा भरोसा होता है। फिर भी लड़की का बगैर प्रश्न पूछे लड़के वालों के हर प्रश्न का सतर्कता पूर्वक जवाब देना क्या दर्शाता है? क्या यह अपने जीवन का फैसला दूसरे की कृपा पर छोड़ना नहीं है। इसके विपरीत अपनी जिंदगी का फैसला खुद लेने का फैसला बेशक दुस्साहस भरा हो परंतु क्या ज्यादा मानवीय नहीं है। इस परंपरा में हिन्दू, मुस्लिम एक जैसे हैं। मालूम नहीं सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई लड़कियों की स्वतंत्रता को लेकर कितने सतर्क हैं। हालांकि दुनिया भर में महिलाओं की आजादी, उनके अधिकारों को लेकर चलने वाले आंदोलन बताते हैं कि धरती के किसी कोने में भी लड़कियों के उतने अधिकार नहीं हैं।


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