फ्यूचर लाइन टाईम्स
जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2014 में स्वच्छता अभियान का शुरुआत किये थे। उसे देख कर ऐसा लगता था कि प्रत्येक वर्ष प्रत्येक नागरिक 100 घंटो का समय निकालकर अपने आस पास के इलाकों को सफ़ाई में व्यतीत करेंगे और ये अभियान कुछ दिनों तक चला भी लेकिन उसके बाद इस अभियान में आशातीत कमी आयी।
जब अभियान की शुरुआत हुई थी तो देश के प्रधानमंत्री के साथ सरकारी और गैरसरकारी दफ्तरों से निकलकर सभी लोग अपने हाथों में झाड़ू लेकर सड़क पे निकल गए थे। लेकिन आज का हालात क्या है इसका अन्दाज़ आप देश के सबसे बड़े सूबे यानी कि उत्तरप्रदेश के गौतमबुद्धनगर के जिला मुख्यालय के शौचालय को देखकर लगा सकतें है। कहने को तो यहां पर शौचालय है, लेकिन इसका हालात इतना जर्जर है कि इसके अंदर जाने से पहले लोग एक बार ज़रूर सोचते है। जर्जर के साथ शौचालय के अंदर फैली गंदगी से घृणात होकर लोग मुंह बिचकाने के लिए विवश हो जाते है। और मुख्यालय के अन्दर के शौचालय को छोड़कर कोई निजी शौचालय में रूपीए देकर जाना पसंद करते हैं। जब जिला मुख्यालय के शौचालय के का हालात ये है तो बस पड़ाव और शहर के चौक चौराहो के हालात क्या होगा इसका अंदाज़ आप ख़ुद लगा सकतें है। इस अभियान का दो मुख्य बिंदु था कि भारत को खुले में शौचमुक्त बनाना है और अस्वास्थ्यकर शौचालयों की मरम्मत करवाना लेकिन ज़मीनी हकीकत क्या क्या है वो साफ़ नज़र आ रहा है ना जाने देश में कितना गौतमबुद्धनगर के जैसा शौचालय होगा और वहां फैली गंदगी से लोग घृणा कर मुंह बिचकाने पर मज़बूर होंगे !
एक कहावत है कि स्वच्छ शरीर में ही स्वच्छ मन निवास करता है, परंतु अगर हमारे आसपास का परिवेश प्रदूषण से मुक्त न हो तो क्या हम अपने शरीर की स्वच्छता को कायम रख पाएंगे और जब शरीर की स्वच्छता बनाए रखना हमारे लिए संभव नहीं होगा तो मन पर उसका दुष्प्रभाव पड़ने से कैसे इंकार किया जा सकता है?
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