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महानगरीय संस्कृति , उन्मुक्तता से आत्महत्या तक : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


चेन्नई निवासी ३१ वर्षीय भरत जे किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित नहीं था। पत्नी और बच्ची भी स्वस्थ थे। महाप्रबंधक जैसे पद पर लगभग छः हजार रुपए प्रतिदिन कमाने वाले इस शख्स ने आत्महत्या क्यों की होगी? उसकी पत्नी ने बच्ची को फांसी पर लटका कर खुद भी आत्महत्या क्यों कर ली?


शायद महानगरीय उन्मुक्त जीवन का यही सत्य है। अख़बारी सूचना के अनुसार यह परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था।तो रोजाना पत्थर तोड़ कर पेट की आग बुझाने वाले परिवारों की आत्महत्याओं के आंकड़े तो बहुत विकट होने चाहिएं। परंतु ऐसा नहीं है। रोजाना कमाकर खाने वालों ने महानगरों के मॉल्स में घुसकर नहीं देखा है। उन्हें ब्रांडेड कपड़ों की कंपनियों के नाम भी पता नहीं हैं। उनकी स्पर्धा खुद से है जिससे वह आसानी से हारते नहीं। जिस दिन उनका काम नहीं लगता उस उनका जश्न होता है। पैकेज की मोटी तनख्वाहों ने जीवन के समक्ष चुनौती खड़ी की हैं। खुद का असल जीवन जी नहीं सकते और नकल का जीवन जीने की कोई सीमा नहीं है। आदतें खराब होने में वक्त नहीं लगातीं और फिर ठीक होना असम्भव हो जाता है। परिणाम भयावह होता है।भरत जे और उसका परिवार शायद इस उपभोक्तावादी संस्कृति का शिकार हो गया। उसने आत्महत्या जैसा आसान किंतु अंतिम विकल्प चुना।उन जैसे दूसरे अनेकों लोग अभी कशमकश में हैं,जियें तो जियें कैसे और जी न सकें तो मरने का आसान तरीका क्या हो। इस रूह कंपा देने वाली दास्तां का यही पैगाम है।


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