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लगता  नहीं  अब  बागों में मेला, फिजायें बहारों की सर्द होती हैं|

फ्यूचर लाइन टाईम्स


इस बार दिल्ली में भी कड़ाके की ठंड पड़ रही है और बहुत वर्षों बाद इस कंपकंपाने वाली सर्दी का पूरे देश में जबरदस्त असर हुआ हैl इस सर्द मौसम के मिजाज़ पर इस ठंड के मौसम में मेरी कही एक नज़्म का मजा लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं - - -


सर्दियाँ भी कैसी सर्द होती हैं,
सर्द मौसम सी बेदर्द होती हैं||


पिघलती है बर्फ़ दूर कहीं पहाड़ों पे,
पर  हवाएं  शहर  की  सर्द होती हैं||


कोई कैसे बुझाये सर्दी बदन की,
बदन की सांसे भी सर्द  होती हैं||


मिलता नहीं गर्म कपड़ा गरीब को,
पर अमीरों  की  रातें गर्म होती हैं||


पड़ता है कोहरा सुबह की भोर में
सूरज की रोशनी भी मंद होती है||


जलता नहीं है चिराग गरीब की झोपड़ में,
पर अमीरों के महलों में रोशनी होती है||


खेलते हैं बच्चे जो घास के बिछोने पे,
आवाजें उनकी भी दबी दबी होती हैं||


लगता  नहीं  अब  बागों में मेला,
फिजायें बहारों की सर्द होती हैं||


कौन है जो बेख़बर है सर्द मौसम के कहर से,
सर्दी की  भी  अपनी  इक चुभन सी होती है||


ये कौन सो रहा है खुले आसमां के पहलू में,
झीनी चादर  गरीब  की कफ़न सी होती है||


सर्दियाँ भी कैसी सर्द होती हैं,
सर्द मौसम सी बेदर्द होती हैं||


     


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