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काकोरी काण्ड ?

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


काकोरी काण्ड अंग्रेजी: Kakori conspiracy भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध छेड़ने की खतरनाक मंशा से हथियार खरीदने के लिये ब्रिटिश सरकार का ही खजाना लूट लेने की एक ऐतिहासिक घटना थी



राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड
इस मुकदमें में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी आजीवन कारावास तक का दण्ड दिया गया था।


१९ दिसम्बर को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल जी का बलिदान दिवस है.....
उनकी "आत्मकथा" को पढकर हम सब भी मां भारती की सेवा में सन्नद्ध हो जायें.....


काकोरी कांड के नायक : पंडित रामप्रसाद बिस्मिल


पंडित रामप्रसाद का जन्म जून 11,1897 को शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता श्री मुरलीधर शाहजहाँपुर नगरपालिका में कर्मचारी थे; पर आगे चलकर उन्होंने नौकरी छोड़कर निजी व्यापार शुरू कर दिया। रामप्रसाद जी बचपन से महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज से बहुत प्रभावित थे। शिक्षा के साथ साथ वे यज्ञ, सन्ध्या वन्दन, प्रार्थना आदि भी नियमित रूप से करते थे।


स्वामी दयानन्द द्वारा विरचित ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़कर उनके मन में देश और धर्म के लिए कुछ करने की प्रेरणा जगी। इसी बीच शाहजहाँपुर आर्य समाज में स्वास्थ्य लाभ करने के लिए स्वामी सोमदेव नामक एक संन्यासी आये। युवक रामप्रसाद ने बड़ी लगन से उनकी सेवा की। उनके साथ वार्तालाप में रामप्रसाद को अनेक विषयों में वैचारिक स्पष्टता प्राप्त हुई। रामप्रसाद जी 'बिस्मिल' उपनाम से हिन्दी तथा उर्दू में कविता भी लिखतेे थे।


1916 में भाई परमानन्द को 'लाहौर षड्यन्त्र केस' में फाँसी की सजा घोषित हुई। बाद में उसे आजीवन कारावास में बदलकर उन्हें कालेपानी अन्दमान भेज दिया गया। इस घटना को सुनकर रामप्रसाद बिस्मिल ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे ब्रिटिश शासन से इस अन्याय का बदला अवश्य लेंगे। इसके बाद वे अपने जैसे विचार वाले लोगों की तलाश में जुट गये।


लखनऊ में उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हुआ। मैनपुरी को केन्द्र बनाकर उन्होंने प्रख्यात क्रान्तिकारी गेंदालाल दीक्षित के साथ गतिविधियाँ शुरू कीं। जब पुलिस ने पकड़ धकड़ शुरू की, तो वे फरार हो गये। कुछ समय बाद शासन ने वारंट वापस ले लिया। अतः ये घर आकर रेशम का व्यापार करने लगे; पर इनका मन तो कहीं और लगा था। उनकी दिलेरी,सूझबूझ देखकर क्रान्तिकारी दल ने उन्हें अपने कार्यदल का प्रमुख बना दिया।


क्रान्तिकारी दल को शस्त्रास्त्र मँगाने तथा अपनी गतिविधियों के संचालन के लिए पैसे की बहुत आवश्यकता पड़ती थी। अतः बिस्मिल जी ने ब्रिटिश खजाना लूटने का सुझाव रखा। यह बहुत खतरनाक काम था; पर जो डर जाये, वह क्रान्तिकारी ही कैसा ? पूरी योजना बना ली गयी और इसके लिए नौ अगस्त, 1925 की तिथि निश्चित हुई।


निर्धारित तिथि पर दस विश्वस्त साथियों के साथ पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने लखनऊ से खजाना लेकर जाने वाली रेल को काकोरी स्टेशन से पूर्व दशहरी गाँव के पास चेन खींचकर रोक लिया। गाड़ी रुकते ही सभी साथी अपने-अपने काम में लग गये। रेल के चालक तथा गार्ड को पिस्तौल दिखाकर चुप करा दिया गया। सभी यात्रियों को भी गोली चलाकर अन्दर ही रहने को बाध्य किया गया। कुछ साथियों ने खजाने वाले बक्से को घन और हथौड़ों से तोड़ दिया और उसमें रखा सरकारी खजाना लेकर सब फरार हो गये।


परन्तु आगे चलकर चन्द्रशेखर आजाद को छोड़कर इस कांड के सभी क्रान्तिकारी पकड़े गये। इनमें से रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खाँ तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी की सजा सुनायी गयी। रामप्रसाद जी को गोरखपुर जेल में बन्द कर दिया गया। वे वहाँ फाँसी वाले दिन तक मस्त रहे। अपना नित्य का व्यायाम, पूजा, सन्ध्या वन्दन उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।


दिसम्बर 19,1927 को बिस्मिल को गोरखपुर, अशफाक उल्ला को फैजाबाद तथा रोशन सिंह को प्रयाग में फाँसी दे दी गयी।


 


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