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जोर सजा पर है परंतु : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 
सड़क से संसद तक जो उबाल है उसमें व्यवस्था की खामियां निशाने पर हैं। हैदराबाद की डॉ प्रियंका रेड्डी के साथ हैवानियत कर उसे मौत के घाट उतारने वाले कानून के कब्जे में आ चुके हैं।घटना को लेकर गुस्सा प्रकट कर रहे लोग आश्वस्त नहीं हैं कि देश की मौजूदा न्याय व्यवस्था अपराधियों पर तत्काल कहर बनकर टूटेगी। चार छः दिनों में यह गुस्सा ही नहीं बचेगा तो न्याय तंत्र को क्या जल्दी है। गुस्सा करने वाले लोगों की इच्छा शीघ्र एवं कठोर कार्रवाई की है। ऐसा हो सकता है।देश की संसद कानून बना दे और उसका पालन कराने वाली एजेंसियां ठान लें तो शीघ्र व कठोर कार्रवाई की मंजिल दूर नहीं होगी। परंतु क्या इतने भर से इस तरह के अपराधों से मुक्ति मिल सकती है? दुनिया के जिन देशों में निर्दयी कानून लागू हैं क्या वहां समाज को अपराध मुक्त करने का लक्ष्य हासिल किया जा चुका है। यदि ऐसा होता तो कानूनों को नियमित रखने की जरूरत खत्म हो गई होती। क़ानून के बावजूद समाज की नैतिक जिम्मेदारी खत्म नहीं होती।२०१४ में लालकिले की प्राचीर से प्रथम बार स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया था कि जिस प्रकार लड़कियों के घर से निकलने और आने की निगरानी की जाती है वैसी निगरानी लड़कों की क्यों नहीं की जाती। छः वर्ष हो गए, बात आई गई हो गई परंतु महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं। विरोध प्रदर्शन जीवंत समाज की पहचान हैं परंतु संस्कारों की अवहेलना स्वयं असभ्य हो जाने का पुख्ता कारण होता है। विरोध प्रदर्शनों के बीच जब मन-मस्तिष्क होश में आ जाये तो इस बिंदु पर सोचने से भी समाधान निकल सकता है।


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