फ्यूचर लाइन टाईम्स
भारत की स्वाधीनता के युद्ध में 'झण्डा गीत' का बड़ा महत्व है। यह वह गीत है, जिसे गाते हुए लाखों लोगों ने ब्रिटिश शासन की लाठी गोली खाई; पर तिरंगे झण्डे को नहीं झुकने दिया। आज भी यह गीत सुनने वालों को प्रेरणा देता है। इस गीत की रचना का बड़ा रोचक इतिहास है।
इसके लेखक श्री श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' का जन्म कानपुर उ.प्र. के पास नरवल गाँव में नौ दिसम्बर, 1893 को हुआ था। मिडिल पास करने के बाद उनके पिताजी ने उन्हें घरेलू कारोबार में लगाना चाहा; पर पार्षद जी की रुचि अध्ययन और अध्यापन में थी। अतः वे जिला परिषद के विद्यालय में अध्यापक हो गये। वहाँ उनसे यह शपथपत्र भरने को कहा गया कि वे दो साल तक यह नौकरी नहीं छोड़ेंगे। पार्षद जी ने इसे अपनी स्वाधीनता पर कुठाराघात समझा और नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
इसके बाद वे मासिक पत्र 'सचिव' का प्रकाशन करने लगे। इसके मुखपृष्ठ पर लिखा होता था -
रामराज्य की शक्ति शान्ति, सुखमय स्वतन्त्रता लाने को
लिया सचिव ने जन्म, देश की परतन्त्रता मिटाने को।।
पार्षद जी की रुचि कविता में भी थी। एक समारोह में पार्षद जी ने अध्यक्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्वागत में एक कविता पढ़ी। इससे गणेश शंकर 'विद्यार्थी' बहुत प्रभावित हुए। 1923 में फतेहपुर (उ.प्र.) में जिला कांग्रेस अधिवेशन में विद्यार्थी जी का बड़ा ओजस्वी भाषण हुआ। सरकार ने इस पर उन्हें जेल में ठूँस दिया। जेल से आने पर उनके स्वागत में पार्षद जी ने एक कविता पढ़ी। इस प्रकार दोनों की घनिष्ठता बढ़ती गयी।
उन दिनों कांग्रेस ने अपना झण्डा तो तय कर लिया था; पर उसके लिए कोई गीत नहीं था। विद्यार्थी जी पार्षद जी से आग्रह किया कि वे कोई झण्डा गीत लिख दें। पार्षद जी ने स्वीकृति दे दी; पर काफी समय तक लिख नहीं पाये। एक बार विद्यार्थी जी ने कहा कि लगता है तुम्हें बहुत घमंड हो गया है। चाहे जैसे हो, पर मुझे हर हाल में कल सुबह तक झण्डा गीत चाहिए। इस पर पार्षद जी ने रात में यह गीत लिखा।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसाने वाला, वीरों को हर्षाने वाला
शान्ति सुधा बरसाने वाला, मातृभूमि का तन मन सारा।
झण्डा ऊँचा रहे हमारा।।
इस गीत में विजयी विश्व पर कुछ लोगों को आपत्ति थी; पर पार्षद जी ने कहा कि इसका अर्थ विश्व को जीतना नहीं, अपितु विश्व में विजय प्राप्त करना है। धीरे-धीरे यह गीत लोकप्रिय होता गया। 1938 के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी जी और नेहरु जैसे कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इसे गाया, तो अपनी कलम को सार्थक होते देख पार्षद जी भाव विभोर हो उठे।
पर आजादी के बाद कांग्रेस का जो हाल हुआ, उससे पार्षद जी का मन खिन्न हो गया। एक बार उनसे एक मित्र ने पूछा कि आजकल क्या नया लिख रहे हो ? अपने मन की पीड़ा को दबा कर वे बोले - नया तो नहीं लिखा; पर पुराने झण्डा गीत में यह संशोधन कर दिया है।
इसकी शान भले ही जाए; पर कुर्सी न जाने पाये।।
आगे चलकर उन्होंने ग्राम नरवल में गणेश सेवा आश्रम खोला। वहाँ प्रतिदिन वे पैदल जाते थे। एक बार उनके पाँव में काँच चुभ गया। पैसे के अभाव में इलाज ठीक से नहीं हो पाया और गैंगरीन हो जाने से अगस्त,10, 1977 को उनका देहान्त हो गया।
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