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दिसम्बर 9 जन्म-दिवस अप्रतिम रचानाकार लक्ष्मीकान्त महापात्र

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


महाकवि लक्ष्मीकान्त महापात्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे कवि होने के साथ ही स्वतन्त्रता सेनानी भी थे। उन्होंने ओड़िया साहित्य को नया आयाम प्रदान किया तथा हजारों लोगों को स्वतन्त्रता संग्राम से जोड़ा। इनका साहित्य हर आयु एवं वर्ग के लोगों के मन को झकझोर देता था। इसीलिए राज्य की जनता ने उन्हें 'कान्तकवि' की उपाधि देकर सम्मानित किया। 


अप्रैल 1, 1936 को भाषाई आधार पर उड़ीसा पहला राज्य बना। इसके निर्माण में भी इनकी लेखनी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनका जन्म  दिसम्बर 9, 1888 को कटक के धुआँपत्रिया में हुआ था। श्री महापात्र की कविता, कहानियाँ तथा अन्य रचनाएँ ओड़िया साहित्य का अभिन्न अंग हैं। इनके एक गीत 'बन्दे उत्कल जननी' को उड़ीसा के राज्यगान का स्थान दिया गया है। यह गीत अत्यन्त हृदयस्पर्शी है। 


 महापात्र ने ओड़िया भाषा के साहित्य को तब सँभाला एवं सँवारा, जब उसका अस्तित्व खतरे में था। ऐसे समय में उन्होंने अपनी तेजस्वी और प्रखर लेखनी से ओड़िया भाषा एवं संस्कृति पर हो रहे आक्रमण के विरुद्ध जनता में चेतना जगायी और इस संघर्ष में सफलता प्राप्त की।


 महापात्र ने न केवल ओजपूर्ण कविताओं की रचना की, अपितु अनेक प्रकार के हास्य व्यंग्य, कहानियाँ, नाटक एवं उपन्यास भी लिखे। इतना ही नहीं, तो वे एक अच्छे गायक एवं अभिनेता भी थे। अपने गीतों को गाकर तथा अपने नाटकों में अभिनय कर उन्होंने जनता को जाग्रत किया। खराब स्वास्थ्य के बाद भी वे इस काम में सदा सबसे आगे रहते थे। उनके लेख जहाँ राष्ट्रवाद की भावना जगाते हैं, वहाँ एक वृद्ध चूड़ी वाले के जीवन पर लिखी कहानी 'बुढा शंखारी' उसके जीवन के हर पहलू का सजीव वित्रण कर पाठक को रोने पर मजबूर कर देती है। 


 महापात्र मूलतः ओड़िया भाषा के साहित्यकार थे; पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी अपनी लेखनी चलाई। उन्होंने उस समय ख्याति प्राप्त ऑब्जर्वर तथा करेण्ट अफेयर्स नामक पत्रिकाओं में लेख लिखे। उनकी एक रचना 'म्यूजिक ऑफ विसिल' से एक फ्रैंच महिला इतनी प्रभावित हुई कि उसने इसका अपनी भाषा में अनुवाद किया, जिससे उसके देश के लोग इसे पढ़ सकें।


श्री महापात्र के पिता श्री भागवत प्रसाद एक राजनेता थे, जबकि उनकी माता श्रीमती राधामणि देवी वेद और उपनिषदों की अच्छी जानकार थीं। उनके दोनों भाई सीताकान्त व कमलाकान्त तथा बहिन कोकिला देवी भी स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय थे। इस कारण स्वाभाविक रूप से घर-परिवार में धर्म, देश, समाज, गुलामी और राजनीति की चर्चा प्रायः होती थी। अतः राजनीति एवं समाज सेवा के संस्कार लक्ष्मीकान्त पर बालपन से ही पड़े। आगे चलकर वे चार बार उड़ीसा-बिहार विधानसभा के सदस्य बने तथा दो बार उन्होंने सदन के उपाध्यक्ष का पद भी सँभाला। 


 लक्ष्मीकान्त महापात्र ने दहेज के अभाव में कई कन्याओं के जीवन बिगड़ते हुए देखे। इससे उन्हें बहुत पीड़ा हुई और उन्होंने दहेज प्रथा के उन्मूलन के अथक प्रयास किये। उनकी साहित्य एवं समाज के प्रति सेवाओं को देखकर उत्कलमणि गोपबन्धु दास एवं उत्कल गौरव मधुसूदन दास ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।  फरवरी 24, 1953 को उनके निधन से न केवल ओड़िया, अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई।


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