फ्यूचर लाइन टाईम्स
प्रौढ़ावस्था में तो प्रायः सभी लोग प्रभु स्मरण करने लगते हैं; पर कुछ लोग अपने पूर्व जन्म के संस्कारवश बाल्यवस्था में ही प्रभु को समर्पित हो जाते हैं। महर्षि रमण के नाम से प्रसिद्ध हुए वेंकटरमण ऐसी ही एक विभूति थे। उनका जन्म तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव तिरुचली में दिसम्बर 30, 1879 को हुआ था। बचपन में वे बहुत सुन्दर और स्वस्थ थे; पर पढ़ने में उनकी रुचि बहुत कम थी। उन्हें विद्यालय भेजने में माँ को पसीने छूट जाते थे। बहुत अधिक सोने के कारण लोग उन्हें कुम्भकर्ण कहते थे।
जब वे 16 वर्ष के थे, तब उनके घर तमिलनाडु के अरुणाचल पर्वत तिरुवन्नमलाई से एक संन्यासी पधारे। उनकी वार्त्ता से वेंकटरमण के मन में अरुणाचल दर्शन की जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी। उन्होंने ठान लिया कि वे एक बार अरुणाचल अवश्य जायेंगे। उन्हीं दिनों उन्होंने शैव सन्तों की कथाएँ एवं कविताएँ पढ़ी। इससे उनके मन में अध्यात्म के प्रति प्रेम जाग गया।
अब रमण अधिक से अधिक समय एकान्त में बैठकर चिन्तन-मनन करने लगे। कभी-कभी तो वे समाधि में घण्टों बैठे रहते थे। उन्हें हर समय अरुणाचल की याद आती थी। रेल से वहाँ के निकटवर्ती स्टेशन तक जाने के लिए भी तीन रु. का टिकट लगता था। एक दिन माँ ने उन्हें बड़े भाई की फीस जमा कराने के लिए पाँच रु. दिये। रमण ने माँ को एक पत्र लिखा कि मैं भगवान् को खोजने जा रहा हूँ। आप लोग मेरी तलाश न करें। पत्र के साथ ही उन्होंने शेष दो रु. भी रख दिये।
इसके बाद उनकी यात्रा बहुत कठिन थी। रेल से उतरकर भी बहुत दूर जाना था। धन के अभाव में उन्हें पैदल ही चलना पड़ा। मार्ग में लोग दयावश उन्हें भोजन करा देते थे। रात में वे किसी मन्दिर में रुक जाते थे। अन्ततः वे तिरुवन्नमलाई पहुँच गये। सामने ही अरुणाचल पर्वत पर स्थित मन्दिर था। रमण अपनी सुध-बुध खो बैठे। उन्होंने वहाँ कठिन साधना प्रारम्भ कर दी।
धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैलने लगी। लोग उन्हें महर्षि रमण कहने लगे। मन्दिर में आने वालों के कारण उनकी साधना में व्यवधान आता था। अतः थम्बी रंगास्वामी नामक भक्त के आग्रह पर वे उसके बाग में रहने लगे। जब उनके परिवारजनों को यह पता लगा, तो वे वहाँ आये और उनसे वापस घर चलने का आग्रह किया; पर रमण ने सबको समझाकर लौटा दिया।
कुछ समय बाद वे फिर अरुणाचल मन्दिर आ गये। उनके शिष्यों ने वहीं एक आश्रम तथा मन्दिर बना लिया। वहाँ गोशाला, वेद पाठशाला, प्रकाशन विभाग आदि खोले गये। सब आश्रमवासी अपने लिए निर्धारित काम स्वयं करते थे। महर्षि रमण भी सबके साथ सहयोग करते थे। आश्रम सब धर्म, जाति और सम्प्रदायों के लिए खुला था। पशु-पक्षी भी वहाँ स्वतन्त्रता से विचरते थे। रमण के मन में सबके लिए समान प्रेम था।
1947 में उन्हें कैन्सर ने घेर लिया। इससे उन्हें बहुत शारीरिक कष्ट होता था; पर वे सदा मुस्कुराते रहते थे। उनके शिष्य एवं आगंतुक यह देखकर दंग रह जाते थे। चिकित्सकों ने शल्य क्रिया कर उनकी बाँह से वह गाँठ निकाल दी; पर रोग शान्त नहीं हुआ। अब बाँह को काटना ही विकल्प था; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए और प्रभुधाम जाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। अप्रैल 24, 1950 को प्रेमावतार महर्षि रमण ने शरीर छोड़ दिया।
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