फ्यूचर लाइन टाईम्स
वर्ष 1946 के सितम्बर मास में एक यात्री जहाज 'एस.एस.वसना' मुंबई से केन्या की ओर चला। इसमें गांव छारिक मोगा, पंजाब निवासी स्वयंसेवक 24 वर्षीय जगदीश चंद्र शारदा भी थे। पांचवें दिन डेक पर घूमते हुए उन्होंने संघ की खाकी निक्कर पहने एक युवक को देखा। वे थे गुजरात के 19 वर्षीय माणिक लाल रूघाणी। फिर क्या था; दोनों हर्ष से गले लिपट गये। अस्त हो रहे सूर्य को साक्षी मानकर दोनों ने ''नमस्ते सदा वत्सले'' प्रार्थना की। इस प्रकार सितम्बर 1946 में समुद्र की लहरों पर पहली सागरपारीय शाखा लगी।
इसके बाद तो फिर रोज शाखा लगने लगी। मोम्बासा पहुंचते तक शाखा की संख्या 17 हो गयी। वहां जाकर उन्होंने अन्य हिन्दुओं से संपर्क किया और मकर संक्रांति 1947 को विधिवत शाखा और 'भारतीय स्वयंसेवक संघ' की स्थापना की। इसके मूलाधार जगदीश चन्द्र शारदा ने 1938 में संस्कृत में 'शास्त्री' की उपाधि ली थी। वे नैरोबी के सनातन धर्म गर्ल्स स्कूल में हिन्दी तथा संस्कृत पढ़ाने जा रहे थे। कुछ साल बाद उन्हें केन्या के शिक्षा विभाग में पक्की नौकरी मिल गयी। 1977 में उन्होंने वहां से अवकाश लिया।
केन्या में हिन्दू काफी समय से रह रहे थे। भाषा, राज्य, जाति और रोजगार पर आधारित उनकी 147 संस्थाएं वहां थीं; पर कोई उनकी सुनता नहीं था। शास्त्री जी ने सबसे मिलकर 'हिन्दू काउंसिल ऑफ केन्या' का गठन किया। कुछ साल में ये हिन्दुओं की प्रमुख संस्था बन गयी और उनकी बात सुनी जाने लगी। संकट में उन्हें इससे सहारा मिलने लगा। आगे चलकर नैरोबी में 'दीनदयाल भवन' बना, जो सभी हिन्दू गतिविधियों का केन्द्र बन गया।
धीरे-धीरे केन्या के कई नगरों में शाखा खुल गयीं। उसमें सब तरह के लोग आने लगे। इससे संघ की प्रतिष्ठा और शासन में प्रभाव बढ़ा। दीवाली को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया। ¬ का डाक टिकट जारी हुआ और स्कूलों में हिन्दू धर्म पर एक पाठ पढ़ाया जाने लगा। पहले स्थानीय गुंडों के कारण कई हिन्दू व्यापारी देश छोड़ जाते थे; पर अब ऐसी चर्चा होने पर शासक ही उन्हें रोक लेते थे। इसमें सबसे प्रमुख भूमिका शास्त्री की ही थी।
केन्या के बाद मॉरीशस, इंग्लैंड और कनाडा में विभिन्न नामों से संघ का काम शुरू हुआ। अवकाश लेकर शास्त्री अपने बेटे के पास कनाडा में रहने लगे। संघ में विश्व विभाग के गठन के बाद उनके संपर्कों का खूब लाभ मिला। वे कनाडा में इसका केन्द्रीय कार्यालय संभालते थे। वे विश्व विभाग के जीवंत कोश थे। 1987 में केन्या में भारतीय स्वयंसेवक संघ की 40 वीं वर्षगांठ पर हुए शिविर में शास्त्री जी और रूघाणी, दोनों उपस्थित थे। 1989 में डा. हेडगेवार की जन्मशती पर संघ का काम युवाओं को सौंपकर शास्त्री जी 'हिन्दू विद्या मंदिर' हिन्दू इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग के काम में लग गये।
शास्त्री जी विदेशस्थ स्वयंसेवकों एवं भारतीयों को भारत की यात्रा के लिए प्रेरित करते थे, जिससे वे अपने धर्म, संस्कृति और पूर्वजों से जुड़े रहें। विश्व विभाग के हर शिविर में वे आते थे। 2010 के पुणे शिविर में तो वे पहिया कुर्सी पर ही घूमकर सबसे मिले। वहां हर कोई उनके साथ एक फोटो जरूर खिंचवाना चाहता था। उन्होंने भी किसी को मना नहीं किया। कोई उनके गिरते स्वास्थ्य की चिंता करता, तो वे 'प्रभु इच्छा' कहकर हंस देते थे।
शास्त्री जी 1940 में अमृतसर में स्वयंसेवक बने और 1942 में संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे प्रसिद्धि से दूर रहकर दूसरों को श्रेय देते थे। अतः हर जगह नये और युवा कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी हो गयी। 96 वर्ष की भरपूर आयु में दिसम्बर 25, 2017 को कनाडा में उनका निधन हुआ। संघ के वैश्विक विस्तार में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
आर्गनाइजर जनवरी 7,2018, मैमोरीज ऑफ ए ग्लोबल हिन्दू, कृ.रू.सं.द/6
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