फ्यूचर लाइन टाईम्स
श्री महानामव्रत का जन्म ग्राम खालिसकोटा जिला बारीसाल, वर्तमान बांग्लादेश में दिसम्बर 25, 1904 को हुआ था। उनका बचपन का नाम बंकिम था। वे अपने धर्मप्रेमी माता-पिता की तीसरी सन्तान थे।
बंकिम को उनसे बाल्यावस्था में ही रामायण, महाभारत और अन्य धर्मग्रन्थों का ज्ञान मिल गया था। लगातार अध्ययन से पिता कालीदास जी की आँखों की ज्योति चली गयी। ऐसे में बंकिम उन्हें धर्मग्रन्थ पढ़कर सुनाने लगेे।
वे एक प्रतिभावान छात्र थे। उन्होंने कक्षा आठ तक पढ़ाई की और फिर गांधी जी की अपील पर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। इसके तीन साल बाद वे श्रीजगद्बन्धु प्रभू के अनुयायी बने। श्रीजगद्बन्धु प्रभू एक अंधेरी कोठरी में सात साल एकान्त साधना कर बाहर आये थे। तब हजारों लोग उनकी एक झलक देखने के लिए एकत्र हुए थे। बंकिम पैदल ही घर से 125 कि.मी. दूर वहाँ गये। उनके दर्शन से वे अभिभूत हो उठे।
जगद्बन्धु प्रभू के देहान्त के बाद बंकिम ने संन्यासी बनने का निश्चय किया। उनके बीमार पिता ने यह सुनकर उसी समय देह त्याग दी। इसके बाद वे श्री जगद्बन्धु के अनुयायी और महानाम सम्प्रदाय के संस्थापक अध्यक्ष श्रीपाद महेन्द्र के चरणों में गयेे। महेन्द्र ने उन्हें घर जाकर हाईस्कूल की परीक्षा देने को कहा।
यद्यपि उन्होंने तीन साल से पढ़ाई छोड़ दी थी। फिर भी कठोर परिश्रम कर उन्होंने परीक्षा दी और छात्रवृत्ति प्राप्त की। वह तब केवल 17 साल के थे। इसके बाद वे विधिवत महानाम सम्प्रदाय के संन्यासी बन गये। उनका संन्यास का नाम श्रीमहानामव्रत ब्रह्मचारी हुआ।
महेन्द्र की प्रेरणा से उन्होंने बी.ए. और एम.ए. की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। 1932 में उन्होंने दर्शनशास्त्र से विशेष योग्यता लेकर एम.ए. किया। परिणाम आने से पूर्व ही एक सम्मेलन में भाग लेने वे शिकागो चले गये। वहाँ उनके भाषणों से सब बहुत प्रभावित हुए। लोगों ने उन्हें अमरीका में ही रहने का आग्रह किया; पर उनका वीसा केवल तीन मास का ही था। कुछ प्रभावी लोगों ने उनको शिकागो विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. हेतु प्रवेश दिलवा दिया। इससे उनका वीसा छात्र-वीसा में बदल गया।
1936 में वे एक वैश्विक सम्मेलन हेतु लन्दन गये। वहाँ भी उनके भाषणों की धूम मच गयी। 1937 मंे उन्हें चैतन्य महाप्रभु के शिष्य जीव गोस्वामी के दर्शन पर शोध के लिए पी-एच.डी दी गयी। इसी वर्ष उन्हें विश्व अनुयायी संघ का सचिव पद दिया गया। इस नाते अमरीका, यूरोप और कनाडा में उन्होंने हिन्दू धर्म का प्रचार किया। उन्होंने अमरीका के 29 विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक के नाते भाषण दिये। वे निःसंकोच क्लब और चर्च में जाकर भी हिन्दू धर्म के बारे में लोगों को बताते थे।
श्री महानामव्रत जी सदा संन्यासी वेष में रहते थे।1939 में भारत लौटकर उन्होंने अपना जीवन वेद, गीता, श्रीमद्भागवत, श्री जगद्बन्धु प्रभु व चैतन्य देव की शिक्षा के प्रचार में समर्पित कर दिया।
पूर्वी पाकिस्तान बनने पर अधिकांश हिन्दू संस्थाओं ने वह देश छोड़ दिया; पर महानामव्रत वहीं रहकर धर्म का प्रचार करते रहे। बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में उनके आठ युवा शिष्य बलिदान हुए। उनकी पुस्तकें गौर कथा, चण्डी चिन्तन, उद्धव सन्देश तथा गीता, उपनिषद और श्रीमद्भागवत की व्याख्याएँ असाधारण हैं।
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