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दिसम्बर 2 पुण्य-तिथि , मातृभक्त गुरुदास बनर्जी 

फ्यूचर लाइन टाईम्स 


इन दिनों प्रायः लोग बड़ी डिग्री पाकर या ऊंची कुर्सी पर बैठकर अपने माता-पिता की सेवा और सम्मान करना भूल जाते हैं; पर श्री गुरुदास बनर्जी ने कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलपति तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होते हुए भी आजीवन अपनी माता की सेवा का व्रत निभाया।


गुरुदास बनर्जी का जन्म 26 जनवरी, 1844 को कोलकाता में हुआ था। उन्होंने 1864 में स्वर्ण पदक के साथ गणित में एम.ए. किया। इसके बाद 1865 में बी.एल तथा 1876 में कानून में डॉक्टर की उपाधि डी.एल. प्राप्त की। वे कई वर्ष बहरामपुर कॉलिज में कानून के प्राध्यापक रहे। इसके बाद 1872 से वे कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।


1878 में वे कोलकाता वि.वि. में 'टैगोर लॉ प्रोफेसर' बने। इस पद पर रहकर उन्होंने हिन्दू विवाह कानून तथा स्त्रीधन विषय पर भाषण दिये। वे 1879 में कोलकाता वि.वि. के फैलो, 1887 में बंगाल विधान परिषद के सदस्य, 1888 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और फिर मुख्य न्यायाधीश बनाये गये। शिक्षाशास्त्री होने के कारण वे दो वर्ष तक कोलकाता वि.वि. में उपकुलपति भी रहे। वे इस पद पर बैठने वाले पहले भारतीय थे। 


1904 में सरकारी सेवा से अवकाश लेने के बाद उन्हें नाइटहुड (सर) की उपाधि दी गयी। उन्होंने 'ए फ्यू थाट्स ऑन एजूकेशन' नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसमें उनके शिक्षा में सुधार सम्बन्धी विचार तथा अनुभव संग्रहित हैं। उनकी धर्म-कर्म में भी बहुत रुचि थी। वे स्वयं को गर्वपूर्वक कट्टर सनातनी कहते थे। उन्होेंने हिन्दू धर्म के व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाते हुए कई पुस्तकें लिखीं। इनमें बंगला में लिखित 'ज्ञान ओ कर्म' बहुत प्रसिद्ध हुई।


श्री गुरुदास बनर्जी की मां ने काफी कष्ट सहकर उन्हें पढ़ाया और बड़ा किया था। अतः अपनी मां के प्रति उनके मन में अत्यधिक पूज्यता का भाव था। उनकी माता जी प्रतिदिन गंगा स्नान करने जाती थीं। जब वृद्ध होने के कारण उन्हें गंगा तक जाने में असुविधा होने लगी, तो श्री बनर्जी स्वयं प्रतिदिन उनके स्नान व पूजा के लिए नदी से ताजा गंगाजल लेकर आते थे।


उन दिनों बंगाल में श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक समाज सुधारक के नाते प्रसिद्ध थे। उन्होंने बाल-विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए बहुत प्रयास किये। अतः समाज के रुढ़िवादी लोग उनका विरोध करते थे। उन्होंने श्री विद्यासागर को समाज-बहिष्कृत कर रखा था। 


यद्यपि श्री बनर्जी की मां स्वयं अनेक कर्मकांड तथा रुढ़ियों का पालन करती थीं; पर वे श्री विद्यासागर के इस काम की समर्थक थीं। उनकी इच्छा थी कि उनकी अंत्येष्टि में श्री विद्यासागर भी उपस्थित हों। श्री गुरुदास बनर्जी ने समाज के भारी विरोध को सहते हुए भी श्री विद्यासागर को बुलाकर अपनी मां की अंतिम इच्छा का सम्मान किया।


बचपन में मां की बीमारी में जिस धाय मां ने उन्हें दूध पिलाया था, वह एक बार उनसे मिलने न्यायालय में आ गयीं। जैसे ही श्री बनर्जी ने उन्हें देखा, तो कुर्सी से उठकर उनके चरणों में माथा टेककर प्रणाम किया। ऐसे श्रेष्ठ विद्वान, शिक्षाशास्त्री, न्यायविद् तथा मातृभक्त श्री गुरुदास बनर्जी का दो दिसम्बर, 1918 को देहांत हुआ। उनके नाम पर फूलबागान, कोलकाता में एक विद्यालय तथा वि.वि. में एक प्राध्यापक पीठ बनी है।


संदर्भ : अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री


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