फ्यूचर लाइन टाईम्स
'काकोरी कांड' में फाँसी पाने वाले अशफाक उल्ला खाँ का जन्म 1900 ई0 में शाहजहाँपुर उ.प्र. में हुआ था। युवावस्था में उनकी मित्रता रामप्रसाद 'बिस्मिल' से हुई, जो फरार अवस्था में शाहजहाँपुर के आर्यसमाज मन्दिर में रह रहे थे। पहले तो बिस्मिल को उन पर संदेह हुआ; पर एक घटना से उनके बीच विश्वास का जो बंधन स्थापित हुआ, वह कभी नहीं टूट पाया।
शाहजहाँपुर में एक बार मुसलमानों ने दंगा कर दिया। वे आर्य समाज मन्दिर को नष्ट करना चाहते थे। अशफाक उस समय वहीं थे। वे दौड़कर घर गये और अपनी दुनाली बन्दूक तथा कारतूसों की पेटी लेकर आर्यसमाज की छत से दंगाइयों को ललकारा। उनका रौद्र रूप देखकर मुस्लिम दंगाई भाग गये। इसके बाद बिस्मिल जी का उनके प्रति विश्वास दृढ़ हो गया। उन्होंने अशफाक को भी अपने क्रान्तिकारी दल में जोड़ लिया।
क्रान्तिकारियों को अपने कार्य के लिए धन की बहुत आवश्यकता रहती थी। बिस्मिल का विचार था कि सेठ और जमीदारों को लूटने से पैसा अधिक नहीं मिलता, साथ ही आम लोगों में क्रान्तिकारियों के प्रति खराब धारणा बनती है। अतः उन्होंने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी। अशफाक इस योजना से सहमत नहीं थे। उनका विचार था कि अभी हमारी शक्ति कम है; पर जब यह निर्णय ले लिया गया, तो वे सबके साथ हो गये।
अगस्त 9,1925 को लखनऊ-सहारनपुर यात्री गाड़ी को शाम के समय काकोरी स्टेशन के पास रोक लिया गया। चालक तथा गार्ड को पिस्तौल दिखाकर नीचे लिटा दिया। खजाने से भरा लोहे का भारी बक्सा उतारकर सब उसे तोड़ने लगे; पर वह बहुत मजबूत था। अशफाक का शरीर बहुत सबल था। सबके थक जाने पर उन्होंने हथौड़े से कई चोट की, जिससे बक्सा टूट गया। क्रान्तिकारियों ने सारे धन को चादरों में लपेटा और फरार हो गये।
इस अभियान के बाद अशफाक कुछ दिन तो शाहजहाँपुर में ही रहे, फिर वाराणसी होते हुए बिहार के डाल्टनगंज चले गये। वहाँ स्वयं को मथुरा निवासी कायस्थ बताकर छह महीने तक नौकरी की; पर शीघ्र ही उनका मन ऊब गया।
फिर वे राजस्थान में क्रान्तिकारी अर्जुन लाल सेठी के घर रहे। उनकी पुत्री इन पर मुग्ध हो गयी; पर लक्ष्य से विचलित न होते हुए वे विदेश जाने की तैयारी करने लगे। इसी सम्बन्ध में आवश्यक तैयारी के लिए वे दिल्ली आये। यहाँ उनका एक सम्बन्धी मिल गया। उसने गद्दारी कर उन्हें पकड़वा दिया।
उनकी सजा तो पहले से ही तय थी; पर मुकदमे का नाटक पूरा किया गया। जेल में अशफाक सदा मस्त रहकर गजल तथा गीत लिखते रहते थे।
हे मातृभूमि तेरी सेवा किया करूँगा
फाँसी मिले मुझे या हो जन्मकैद मेरी
बेड़ी बजा-बजाकर तेरा भजन करूँगा।।
तथा -
वतन हमेशा रहे शादकाम और आजाद
हमारा क्या है हम रहें, न रहें।।
दिसम्बर 19, 1927 को फैजाबाद जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। फन्दा गले में डालने से पहले उन्होंने कहा - ''मुझ पर जो आरोप लगाये गये हैं, वह गलत हैं। मेरे हाथ किसी इन्सान के खून से नहीं रंगे हैं। मुझे यहाँ इन्साफ नहीं मिला तो क्या, खुदा के यहाँ मुझे इन्साफ जरूर मिलेगा।''
शाहजहाँपुर के दलेल नगर मौहल्ले में उनकी समाधि बनी है।
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