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भूखे पेट का बाजार : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



बच्चों में भूख बढ़ी है या कम हुई है? एक ही वाहन में सवार मेरे पीछे वाली सीट पर बैठी समाज सेवा में सक्रिय दो महिलाएं इसी विषय पर चर्चा कर रही थीं। उनकी चर्चा कुछ इस प्रकार थी


आजकल के बच्चे घर का खाना नहीं खाते।मेरी नातिन ने कल सारा खाना खा लिया क्योंकि खाना फलां होटल एक नामचीन फाइव स्टार होटल से आया था।" इस बातचीत में फाइव स्टारीय अभिमान तो बेशक था परंतु बच्चों खासतौर पर शहरी बच्चों में खाने की बदलती प्रवृत्ति का संदेह भी था। बच्चे पैकिंग का और पैकिंग को पहचान कर खाना पसंद करते हैं। किशोर और युवा भी घर के खाने में दिलचस्पी नहीं लेते। और बड़े लोग? घरों में खाना बनाने की प्रवृत्ति घट रही है। ऑर्डर पर खाना मंगा कर खाना या रेस्टोरेंट में जाकर खाना अच्छा लगने से ज्यादा स्टेटस सिंबल बन गया है।जोमेटो,स्वेगी जैसे कारोबारी इसी प्रवृत्ति के परिणाम हैं। यह खाना क्यों पसंद आ रहा है? क्या यह घर के खाने से अच्छा है?इन सवालों का जवाब अलग अलग हो सकता है परंतु इस प्रकार के खाने से पेट नहीं भरता। इसलिए इस खाने की भूख बरकरार रहती है। इसका परिणाम यह है कि बच्चों में भूख बढ़ रही है। उन्हें थोड़ी थोड़ी देर में कुछ न कुछ खाने की इच्छा बनी रहती है। इस प्रकार बच्चे भूखे,नदीदे हमेशा भूखे और पेटू होते जा रहे हैं। गांवों में भी चाऊमीन जैसे त्वरित खाने फास्ट फूड ने पांव पसार लिए हैं। गांव में चाऊमीन खाना सीखने वाले शहर आगमन पर  बाजारू खाने के बेहतर ग्राहक सिद्ध होते हैं।


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