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बेचारी पुलिस चौकी का क्या कुसूर : राजेश बैरागी

फ्यूचर लाइन टाईम्स 



देश में कहीं भी दंगा हो और उसके होने की कुछ भी वजह हो, गुस्सा पुलिस चौकी पर उतरता है।


गुस्सा बढ़ जाए तो थाना भी चपेट में आ जाता है परंतु दंगाईयों का पहला निशाना पुलिस चौकी पर होता है। दंगाईयों की आखिर पुलिस चौकियों से ऐसी अदावत क्यों है? दरअसल दंगों को अंजाम देने वाले होनहार लोग पुलिस चौकियों द्वारा पालित पोषित होते हैं। पुलिस इन्हें पालती है और ये पुलिस चौकी को। लंबे समय तक पलने के बाद ये खुद चलने के लायक हो जाते हैं परंतु गुप्त संधि के तहत इन्हें पुलिस चौकी को पालना ही पड़ता है। दंगों के दौरान इन लोगों की पुलिस चौकी से मुक्त होने की दबी कुचली इच्छा बलवती हो जाती है और फिर फूंक दी जाती है पुलिस चौकी।  पुलिस के लिए ऐसा करने वाले लोगों को ढूंढने कहीं नहीं जाना पड़ता। पुलिस उन्हें आसानी से पकड़ लेती है और चौकी फूंकने के लिए नहीं बल्कि इसलिए ठोंकती पीटती है कि वह यह न भूलें कि चौकी को पालना उनका जन्मसिद्ध कर्तव्य है। चौकी से मुक्त होने के लिए उन्हें इस जन्म से मुक्त होना होगा और इसके लिए पुलिस सदैव आपकी सेवा में तत्पर है। तो क्या दंगाईयों को पुलिस पालती है? दंगाईयों को केवल पुलिस नहीं पालती, उन्हें सियासत के दोनों-तीनों पक्ष भी पालते हैं। पुलिस उनकी नियमित ग्राहक है, नेता लोग अवसरवादी होते हैं। पुलिस उन्हें सदैव पहचानती है, नेता लोग काम निकल जाने पर अनजान हो जाते हैं। जहां तक पुलिस चौकी का सवाल है, उसका अधिकार क्षेत्र सीमित होता है, उसके अधिकार असीमित होते हैं।


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